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मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण हैं, आर्य संस्कृति के देदीप्यमान नक्षत्र

  

 


श्री राम ने उत्तर से लेकर दक्षिण सागर तक आर्य साम्रज्य की स्थापना की योगेश्वर श्री कृष्णा पश्चिम में स्थित द्वारका से मणिपुर तक अत्याचारी शासकों को धाराशाही करते हुए पहुंचे

पं0 महेंद्र कुमार आर्य


मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण आर्य संस्कृति के देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिनके आलोक से आर्य जाति आज भी मार्गदर्शन प्राप्त कर रही है। श्री राम का जीवन मर्यादा में बंधा हुआ चलता है, जंहा मुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र उनका पग पग पर मार्गदर्शन करते है, परंतु श्री कृष्ण को यह सौभाग्य प्राप्त नही हुआ। उनकी जीवन सारिता स्वंय अपना मार्ग निर्धारित करती हुई आगे बढती दिखाई देती है। श्री राम ने उत्तर से लेकर दक्षिण सागर तक आर्य साम्रज्य की स्थापना की योगेश्वर श्री कृष्णा पश्चिम में स्थित द्वारका से मणिपुर तक अत्याचारी शासकों को धाराशाही करते हुए पहुंचे। श्री कृष्ण आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, संध्या, यज्ञ आदि दैनिक यज्ञों के अनुष्ठाता, वेद . वेदांग के ज्ञाता, वीरता के पुंज व राजनीति के धुरंधर विद्वान थे। अपने आप को कृष्ण भक्त कहलाने वालों ने उन पर माखन चुराने, गोपियों के वस्त्रों का अपहरण करने, आचार्य द्रोण, जयद्रथ, कर्ण व दुर्योधन आदि को छल से मरवा डालना आदि अनेक दोष लगाए हैं। जब प्रातकाल सनातन धर्म मंदिरों में राधा रमण हरि गोविंद जय जय की ध्वनि सुनाई देती है तो हृदय में अति वेदना होती है। श्री कृष्ण को राधा रमण कहना उनकी भक्ति है या उन्हें गाली देना है। पुराण लेखकों ने श्री कृष्ण के ऊपर बहु विवाह तथा गोपियों के साथ विषय भोग करने का दोषारोपण किया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णन आता है कि श्री कृष्ण साक्षात जार तथा अति लंपट थे। आगे का अर्थ और भी अधिक घृणित है जिसे लिखने में भी लज्जा आती है। आगे कहा है कि वृषभानु की पुत्री राधा सुदामा के साथ अपने पति की आज्ञा से सात करोड़ गोपियों के साथ गोलोक से भारतवर्ष में आई, श्रीकृष्ण अपनी उस पत्नी के साथ विलास करते रहे। गोपाल सहस्रनाम में कहा गया है कि श्री कृष्ण चोर और व्यभिचारियों में शिरोमणि थे। किंतु श्री कृष्णा ना तो गोपियों के साथ व्यभिचार करते थे, और ना राधा के साथ उनका कोई अश्लील संबंध था, ना उनकी 16000 रानियां थी। उनका केवल एक विवाह माता रुक्मणी के साथ हुआ और वही उनकी एकमात्र धर्म पत्नी थी। द्वापर युग के अंत में भारत के भाग्य पर अविद्या एवं अंधकार की घनघोर घटाएं छाई हुई थी। सामाजिक संगठन शिथिल हो चुका था। भारत अनेक छोटे छोटे राज्य में विभक्त था। अत्याचारी राजा साम्राज्यवादी और प्रजा शोषक थे। कंस ने अपने पिता उग्रसेन को कारागार में डाल रखा था, जरासंध और शिशुपाल जैसे अन्य राजाओं ने प्रजा को सन्त्रिस्त किया हुआ था। विश्व अशान्त था। ऐसे भीषण समय में एक ऐसी शक्ति संपन्न और नीतिज्ञ महापुरुष की आवश्यकता थी जो इस दुर्दशा में सबका सहायक होकर विश्व को व्यवस्थित कर सके। ऐसे समय में श्रीकृष्ण का जन्म। हुआ इनके पिता वसुदेव ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य द्वारा वेदोक्त विधि से बलराम और श्रीकृष्ण दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार कराया और दोनों को विद्या अध्ययन के लिए गुरूकुल में भेजा। गुरूकुल में श्रीकृष्ण ने चारों वेद, धनुर्वेद, स्मृति, मीमांसा और न्याय शास्त्र आदि का अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने संधि, विग्रह, यान, आसन,द्वैध, और आश्रय इन 6 भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन किया। विद्या पूर्ण करने के बाद श्री कृष्ण जब अपने कर्म क्षेत्र में आए तो सर्वप्रथम उन्होंने कंस के अत्याचार से प्रजा को मुक्ति दिलाई और कंस का वध कर अपने बूढ़े और अत्याचार पीड़ित नाना उग्रसेन को कारागार से छुड़ाकर राज्य सिंहासन पर बैठाया। जब जरासंध ने 18वीं बार आक्रमण किया तो जरासंध से बार.बार युद्ध कर अपनी प्रजा का नाश होने से बचाने के लिए उन्होंने समुद्र के तट पर द्वारिकापुरी बसाई और एक सुदृढ़ गढ़ बना सब को वहां ले गए। द्वारिका का दुर्ग यादवों के लिए हर प्रकार से अनुकूल और सुरक्षा की दृष्टि से अति उत्तम था। इस प्रकार उन्होंने अपनी प्रजा की रक्षा की। महाभारत का युद्ध होने से पूर्व अश्वत्थामा योगेश्वर श्रीकृष्ण के पास गए और श्रीकृष्ण से उनका सुदर्शन चक्र मांगा तो उन्होंने कहा कि मैंने 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके हिमालय की कंदराओं और गिरी गुफाओ में रहकर बड़ी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था। मेरे समान व्रत का पालन करने वाली रुकमणी देवी के गर्भ से जिसका जन्म हुआ है, जिस के रूप में साक्षात तेजस्वी सनतकुमार ने ही मेरे यहां जन्म लिया है, वह प्रद्युम्न मेरा प्रिय पुत्र है। मेरा यह दिव्य चक्र तो कभी उसने भी नहीं मांगा था। इससे यहां श्री कृष्ण के ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति का पता चलता है। और हमने अविद्या के कारण, मूर्खता के कारण उन पर व्यभिचार के जैसे दोष लगा दिए। युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ के समय पितामह भीष्म से पूछा कि इस राज्यसभा मे अर्ध्यदान किसे दिया जाए, तब भीष्म जी ने कहा किए

वेदवेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा।


नृणां लोके हि कोन्यो ैस्ति विशिष्टरू केशवादृते।।

दानं दाक्ष्यं शौर्यम ह््री कीर्तिरूबुद्धिरुत्तमा।

सन्नति श्रीरू धृति तुष्टिए पुष्टि नियताच्युते।।

अर्थात यह वेद वेदांग ओं के मर्मज्ञ हैं, बलशाली भी सबसे अधिक हैं। श्री कृष्ण के अतिरिक्त संसार के मनुष्यों में आज दूसरा कोई ऐसा नहीं है जो अर्ध्यदान का पात्र हो। दान, दक्षता, शास्त्र ज्ञान, शौर्य, लज्जा, कीर्ति, उत्तम बुद्धि, विनय, श्री, धृति, तुष्टि और पुष्टि यह सभी सद्गुण श्री कृष्णा में नित्य विद्यमान हैं। ऐसे महान विद्वान, ऐसे महान बलवान, ऐसे महान योगी पर हमने चोरी और जारी जैसे आरोप लगा दिए। आईये श्री कृष्ण के कुछ अन्य महत्वपूर्ण गुणों पर चर्चा करते हैं।

 कूटनीतिज्ञः-. महाभारत का प्रत्येक पृष्ठ श्री कृष्ण की कूटनीति की साक्षी दे रहा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र का लोहा आधुनिक विद्वान एवं बुद्धिमान भी मानते हैं। कोटिल के गुरु शुक्राचार्य को श्रेष्ठ माना जाता है। यह शुक्राचार्य अपनी नीतिसार में श्रीकृष्ण के संबंध में डिंडिम घोष के साथ कहते हैं कि पृथ्वी पर श्री कृष्ण के समान कोई दूसरा कूटनीतिज्ञ राजा नहीं हुआ।

 वीरताः-. महाभारत में श्री कृष्ण की वीरता और शक्ति का अनेक स्थलों पर वर्णन मिलता है। भीष्म पितामह और अर्जुन के युद्ध के समय जब श्री कृष्ण ने देखा कि महा प्रतापी भीष्म अपनी बाण वर्षा की बाढ़ में अर्जुन को पीड़ित कर रहे हैं, तो अतुल पराक्रमी श्रीकृष्ण अपनी भुजाओं को उठाते हुए एक रथ का पहिया ले महाबली सिंह की भांति भीष्म पर टूट पड़े।

 शीलः- . श्री कृष्ण के शील का पता इस बात से लगता है कि जब वे व्यास, धृतराष्ट्र, कुंती और युधिष्ठिर आदि बड़ों से मिलते थे तो सदा उनके चरण छूते थे।

 संध्या.उपासनाः-. संध्या और हवन श्री कृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण अंग थे। दूतकर्म पर जाते हुए मार्ग में सूर्यास्त के समय उन्होंने रथ रुकवा कर संध्या की थी। इसका उदाहरण महाभारत उद्योग पर्व में मिलता है।

 सहिष्णुताः- . श्री कृष्ण सहिष्णुता साकार स्वरूप थे। कंस के अत्याचार झेले। जरासंध के प्रहार और शिशुपाल की वचन रूपी तलवार के कठोर वार सहे। परंतु अडोल रहे।

 निर्भीकताः-. श्री कृष्ण के प्रत्येक कार्य में निर्भीकता और आत्मसम्मान जागृत रहता था। कौरवों की सभा में चारों ओर से शत्रुओं से घिरे रहने पर भी उन्होंने अपने आत्मसम्मान की रक्षा की और किसी भी प्रकार दुर्योधन के न मानने पर धृतराष्ट्र को सलाह दी कि हे राजन आप दुर्योधन को बांधकर पांडवों से संधि कर लो, कहीं ऐसा ना हो कि आप के कारण क्षत्रियों का विनाश हो जाए। यह राज दरबार में उनकी निर्भीकता का उदाहरण है।

 निर्लोभताः-. श्री कृष्ण जी ने राज्य क्रांतियां कराई, परंतु किसी लोभ लालच से नहीं। उन्होंने जो भी देश जीता उसे अपने अधीन करने की चेष्टा नहीं की और ना उन्होंने किसी देश को जीतकर अपने भाई बंधु मित्रा आदि को वहां का राजा बनाया। कंस का वध करके श्रीकृष्ण ने उसके पिता उग्रसेन को राज्य दे दिया। इसी भांति जरासंध का वध करके उसके पुत्र सहदेव को राजा बनाया और भौमासुर को मारकर उसके पुत्र भगदत्त को राज्य दे दिया।

 नैतिकताः- श्री कृष्ण का संपूर्ण जीवन नैतिकता के आधार पर प्राणी मात्र का सुख चिंतन करते हुए व्यतीत हुआ। अंतिम बार श्री कृष्ण एक विकट धर्म संकट में फंस गए। उनके ही बंधु बांधव परिवार के सदस्य और सजातीय उद्दंड हो गए। वे सब घोर अशांति का कारण बनते जा रहे थे। जीवन पर्यंत श्री कृष्ण ने विश्वकल्याण किया। इस बार भी वे चूके नहीं। यादव कुल का अपने देखते देखते अपने ही हाथों से उन्होंने अंत करा दिया।

 नम्रताः-. राज सूर्य यज्ञ में श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों की पूजा और उनके चरण धोने का कार्य अपने ऊपर लिया। यह उनकी नम्रता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

 मैत्री भावनाः-  श्री कृष्ण आदर्श मित्र थे। महाभारत में कृष्ण सुदामा की मैत्री का उल्लेख तो नहीं है। परंतु अर्जुन के साथ उनकी कैसी घनिष्ठ मित्रता थी। यह उनके एक वचन से ज्ञात होता है, महाभारत भीष्म पर्व में वर्णन आता है कि श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि तुम्हारा भाई अर्जुन मेरा मित्र, संबंधी और शिष्य है। उसके हित के लिए मैं अपना मांस काटकर भी दे सकता हूं। क्या श्री कृष्ण ईश्वर थे? श्री कृष्ण न तो ईश्वर थे और न ईश्वर के अवतार। वेदों में ईश्वर को अजन्मा और शरीर रहित कहा गया है। श्री कृष्ण का जन्म भी हुआ और वे शरीर धारी भी थे। अतः वे मनुष्य ही थे। स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें ईश्वर कहने वालों को परले दर्जे का मूर्ख बताया है देखिए गीता के सातवें अध्याय के 24 वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं कि सर्वव्यापक ईश्वर के विकार रहित सर्वश्रेष्ठ परमात्मा रूपी भाव को न जानते हुए मूर्ख लोग मुझ शरीर धारी को परमात्मा कहते हैं। कुछ लोग श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं से पूर्ण अवतार मानते हैं। परंतु 16 कला वाला भी मनुष्य ही होता है।

प्रश्नोपनिषद में सोलह कलाओं का वर्णन इस प्रकार है.


 १. प्राण अर्थात जीवन शक्ति।

 २ . श्रद्धा

 ३. प्रसन्नता

 ४ . वायु अर्थात गतिशीलता

 ५ . ज्योति अर्थात ज्ञान प्रकाश

 ६ . आपरू अर्थात नम्रता

 ७ . पृथिवी अर्थात् सहनशीलता

 ८ . इंद्रियां

 ९ . मन

 १० . अन्न अर्थात् धारण शक्ति

 ११ . वीर्य

 १२ . तप

 १३ . मन्त्र अर्थात् मनन शक्ति

 १४ . कर्म अर्थात् पुरुषार्थ

 १५ . लोक. व्यवहार और

 १६ . यश

प्रत्येक व्यक्ति इन्हे धारण कर सकता है और जो इन्हें धारण करता है वह षोडशी अर्थात 16 कला वाला बन जाता है। इस विवेचन से स्पष्ट है श्री कृष्ण एक महान पुरुष थे और उन्हें महापुरुष मानकर ही हम उनके जीवन से शिक्षा लेकर अपने जीवन को उन्नत बना सकते हैं।

संकलनकर्ताः- पं0 महेंद्र कुमार आर्य पूर्व प्रधान आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर नोएडा, जिलाः- गौतमबुद्धनगर हैं।