।। ओ३म् ।।
प0 महेंद्र कुमार आर्य
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बहुत ही सुगम है मुक्ति का मार्ग
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मुक्ति किसको कहते हैं ? मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः अर्थात जिस में छूट
जाना हो उसका नाम मुक्ति है। अब सवाल उठता है कि किससे छूट जाना ? जिससे छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं। किससे छूटने की इच्छा करते हैं, जिससे छूटना चाहते हैं,
किससे छूटना चाहते हैं, जवाब आया दुख से।
छूट कर किसको प्राप्त होते हैं और कहां रहते हैं
? सुख को प्राप्त होते हैं और ब्रह्म में रहते हैं। मुक्ति और बंन्ध
किन.किन बातों से होता है ? परमेश्वर की
आज्ञा पालने,पक्षपातरहित
न्याय, धर्म की वृद्धि करने, पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने- पढाने और धर्म
से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने,
सबसे उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपात रहित न्यायधर्मानुसार ही
करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञा भंग करने आदि से बंन्ध
होता है। मुक्ति किसको प्राप्त नही होती ? जो बद्ध है। बद्ध कौन है ? जो अधर्म अज्ञान में फंसा हुआ जीव है। बद्ध और मोक्ष स्वभाव से होता
है या निमित्त से ? निमित्त से
क्योंकि जो स्वभाव से होता तो बन्ध ओर मुक्ति की निवृत्ति कभी नहीं होती। यह
प्रश्न यह उठता है कि मुक्ति में जीव का लय होता है वा विद्यमान रहता है ? जवाब यह है कि विद्यमान रहता है। तो फिर वह कहां रहता है ? ब्रह्म में रहता है। ब्रह्म कहां है और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता
है वा स्वेच्छाचारी होकर सर्वत्र विचरता है ? जो
ब्रह्म सर्वत्रपूर्ण है उसी में मुक्त जीव अव्याहतगति अर्थात उसको कहीं रुकावट नहीं,
विज्ञान, आनन्दपूर्वक
स्वतन्त्र विचरता है। मुक्त जीव का स्थूल शरीर रहता है या नहीं? नहीं रहता । तो फिर वह सुख और आनन्द का भोग कैसे करता है? उसके सत्यसंकल्पादि स्वाभाविक गुण सामर्थ्य सब रहते हैं भौतिक संग
नहीं रहता। मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक
जीवात्मा के साथ नहीं रहते किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना
चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना
चाहता है तब त्वचा, देखने के
संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ
रसना,गन्ध के लिए घ्राण,संकल्प.विकल्प करते समय मन,निश्चय
करने के लिए बुद्धि, स्मरण करने के
लिए चित्त और अहंकार रूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और
संकल्प मात्र शरीर होता है, जैसे शरीर के
आधार रहकर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य करता है वैसे अपनी शक्ति से
मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है। उसकी शक्ति कितने प्रकार की और कितनी होती है ? मुख्य एक प्रकार की शक्ति है,
परन्तु बल,पराक्रम,आकर्षण,प्रेरणा,गति,भीषण,विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष,संयोग,विभाग,संयोजक,विभाजक,श्रवण,स्पर्शन,दर्शन,स्वादन और गन्धग्रहण तथा ज्ञान इन 24 प्रकार के
सामर्थ्ययुक्त जीव हैं। इससे मुक्ति में भी आनन्द का प्राप्ति रूप भोग करता है। जो
मुक्ति में जीव का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और जो जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं वे तो महामूढ़ हैं क्योंकि
मुक्ति जीव की यह है कि दुखों से छूट कर आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनन्त, परमेंश्वर में जीवों का आनन्द में रहता। देखों वेदान्त शरीरक
सूत्रों में अभावं बादरिराह होवम् । अर्थात जो बादिर व्यास जी का पिता है वह
मुक्ति में जीव का और उसके साथ मन का भाव मानता है अर्थात जीव और मन का लय पाराशर
जी नहीं मानते वैसे ही भावं जैमिनिर्विकल्पामननात्। और
जैमिनि आचार्य मुक्त पुरुष का मन के समान सूक्ष्म शरीर,इन्द्रियां प्राण आदि को भी विद्यमान नानते हैं अभाव नहीं। द्वादशाहवदुभयविधं
बादरायणोऽतः । व्यास मुनि मुक्ति में भाव और अभाव इन दोनों को मानते हैं। अर्थात
शुद्ध सामर्थ्ययुक्त जीव मुक्ति में बना रहता है। अपवित्रता, पापाचरण, दुख,अज्ञानादि का अभाव मानते हैं। यदा
पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्।। यह
उपनिषद् का वचन है। जब शुद्ध मनयुक्त पांच ज्ञानेन्द्रिय जीव के साथ रहती हैं और
बुद्धि का निश्चय स्थिर होता है। उसको परमगति अर्थात मोक्ष कहते हैं। जो परमात्मा
सर्व पाप,जरा, मृत्यु, शोक, क्षुधा,पिपासा से रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प है,उस की खोज और उसी की जानने की इच्छा करनी चाहिए। जिस परमात्मा के
सम्बन्ध से मुक्त जीव सब लोगों और सब कामों को प्राप्त होता है, जो परमात्मा को जान के मोक्ष और साधन और अपने को शुद्ध करना जानता
है सो यह मुक्ति को प्राप्त जीव शुद्ध दिव्य नेत्र और शुद्ध मन से कामों को देखता, प्राप्त होता हुआ रमण करता है। जो
ये दर्शनीय परमात्मा में स्थित होके मोक्ष सुख को भोगते हैं और इसी परमात्मा का जो
कि सब का अन्तर्यामी आत्मा है उस की उपासना मुक्ति की प्राप्ति करने वाले विद्वान
लोग करते हैं। उससे उनको सब लोग और सब काम प्राप्त होते हैं अर्थात जो.जो संकल्प
करते हैं वह वह लोक और वह.वह काम प्राप्त होता है और वे मुक्त जीव स्थूल शरीर
छोड़कर संकल्पमय शरीर से आकाश में परमेश्वर से विचरते हैं क्योंकि जो शरीर वाले
होते हैं वे सांसारिक दुख से रहित नहीं हो सकते। जैसे
इन्द्र से प्रजापति ने कहा कि हे परमपूजित धनयुक्त पुरुष । यह स्थूल शरीर मरणधर्मा है और जैसे सिंह के मुख
में बकरी होवे वैसे यह शरीर मृत्यु के मुख के बीच है सो शरीर इस मरण और शरीर रहित
जीवात्मा का निवास स्थान है। इसलिये यह जीव सुख और दुख से सदा ग्रस्त रहता है
क्योंकि शरीर सहित जीव की सांसारिक प्रसन्नता की निवृत्ति होती ही है और जो शरीर
रहित मुक्त जीवात्म ब्रह्म में रहता है उस को सांसारिक सुख.दुख का स्पर्श भी नहीं होता
किन्तु सदा आनन्द में रहता है। जीव मुक्ति को प्राप्त होकर पुन. जन्म मरण रूप दुख में कभी नहीं आते है। वा नहीं?
न च पुनरावर्त्तते न च पुनरावर्त्तत्त इति ।।
अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात।।
यद्
गत्वा न विनर्त्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
इत्यादि वचनों से विदित होता है कि मुक्ति वहीं
है कि जिससे निवृत होकर पुन. संसार में कभी
नहीं आता ? इसका जवाब यह
है कि यह बात ठीक नहीं है क्योकि वेद में इस बात का निषेध किया गया है।
कस्यं नूनं कतमस्यामृतानां मनागहे चारु
देवस्यनाम ।
को नो मह्या आदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मारतं
च।।
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु
देवस्य नाम।
स नो मह्या आदितये पुनर्दात पितरं च दृशेय मातर
च।।
इदानीमिव सर्व नात्यन्तो च्छेदः ।।
हम लोग
किसका नाम पवित्र जाने ? कौन नाशरहित
पदार्थों के मध्य में वर्तमान देव सदा प्रकाशस्वरूप है। हम
को मुक्ति का सुख भुगा कर पुन. इस संसार में
जन्म देता और माता तथा पिता का दर्शन कराता है ? हम
इस स्वप्रकाशस्वरूप अनादि सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जाने जो हम को मुक्ति
में आनन्त भुगा कर पृथिवी में पुनः माता पिता के सम्बन्ध में जन्म देकर माता.पिता
का दर्शन कराता है वहीं परमात्मा मुक्ति की व्यवस्था करता सबका स्वामी है। जैसे इस
समय बन्ध मुक्त जीव है वैसे ही सर्वदा रहते हैं,
अत्यन्त विच्छेद बन्ध मुक्ति का कभी नहीं होता किन्तु बन्ध और मुक्ति सदा नहीं
रहती। अब सवाल उठता है कि जो दुख का अत्यन्त विच्छेद
होता है वहीं मुक्ति कहाती है क्योंकि जब मिथ्याज्ञान,अविद्या,लोभादि दोष, विषय, दुष्ट व्यसनों
में प्रवृत्ति, जन्म और दुख का
उत्तर.उत्तर के छूटने के पूर्व.पूर्व के निवृत्त होने से ही मोक्ष होता है जोकि
सदा बना रहता है ? इसका जवाब यह
है कि यह आवश्यक नहीं है कि अत्यन्त शब्द अत्यन्ताभाव ही नाम होवे, जैसे अत्यन्तं दुखमत्यंन्तं सुखं चास्य वर्त्तते बहुत दुख और बहुत
सुख इस मनुष्य को है। इससे यही विदित होता है कि इस को बहुत सुख वा दुख है। इसी
प्रकार यहां भी अत्यन्त शब्द का अर्थ जानना चाहिए। जो
मुक्ति से जीव फिर आता है तो वह कितने समय तक मुक्ति में रहता है ? ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात परिमुच्यन्ति सर्वे । वे मुक्त
जीव मुक्ति में प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के
पश्चात मुक्ति सुख को छोड़ के संसार में आते हैं। इसकी संख्या यह है कि तैंतालिस
लाख बीस सहस्त्र वर्षों की एक चतुर्युगी, दो
सहस्त्र चतुर्युगियों का एक अहोरात्र,
ऐसे तीस अहोरात्रों का एक महीना, ऐसे बारह
महीनों का एक वर्ष, ऐसे शत वर्षों
का परान्तकाल होता है। इसको गणित की रीति से यथावत समझ लीजिये। इतना समय मुक्ति
में सुख भोगने का है। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में यह उल्लेख
भी आया है कि जब तक 36000 यानी छत्तीस हजार बार उत्पत्ति और
प्रलय का जितना समय होता है उतने समयपर्यन्त जीव को मुक्ति का आनन्द प्राप्त होता
है। इतनी अवधि तक जीव को दुख न होना कोई मामूली बात नहीं है। जब क्षुधा,तृषा,क्षुद्र,धन,राज्य,प्रतिष्ठा,स्त्री,सन्तान आदि के लिए उपाय करना आवश्यक है तो मुक्ति के लिए उपाय करना
और भी जरूरी है। मुक्ति में जाना और वहां से लौट के जन्म में एक महान काल के बाद
आना है इसलिए मुक्ति का उपाय अत्यावश्यक है। सब
संसार और ग्रन्थकारों का यही मत है कि जिससे पुनः जन्म मरण में कभी न आवे ? यह बात कभी नहीं हो सकती क्योंकि प्रथम जीव का सामर्थ्य शरीरादि
पदार्थ और साधन परिमित है पुन. उस का फल अनन्त
कैसे हो सकता है। अनन्त आनन्द भोगने का असीम सामर्थ्य, कर्म और साधन जीवों में नहीं,
इसलिये अनन्त सुख नहीं भोग सकते। जिन के साधन अनित्य हैं, उन का फल नित्य कभी नहीं हो सकता। और जो मुक्ति में से कोई भी लौट
कर जीव इस संसार में न आवे तो संसार का उच्छेद अर्थात जीव निश्शेष हो जाने चाहिये। जितने
जीव मुक्त होते हैं उतने ईश्वर नये उत्पन्न करके संसार में रख देता है, इसलिये निश्शेष नहीं होते ? जो
ऐसा होवे तो जीव अनित्य हो जो जाएं क्योंकि जिस की उत्पत्ति होती है उसका नाश
अवश्य होता है। फिर तुम्हारे मतानुसार मुक्ति पाकर भी विनष्ट हो जाएं। मुक्ति
अनित्य हो गई और मुक्ति के स्थान में बहुत सा भीड़ भड़क्का हो जाएगा क्योंकि वहां
आगम अधिक और व्यय कुछ भी नहीं होने से बढ़ती का पारावार न रहेगा और दुख के अनुभव
के बिना सुख कुछ भी नहीं हो सकता। जैसे कटु न हो
तो मधुर का क्या, जो मधुर न हो
तो कटु क्या कहावे ? क्योंकि एक
स्वाद के एक रस के विरुद्ध होने से दोनों की परीक्षा होती है। जैसे कोई मनुष्य
मीठा मधुर ही खाता पीता जाए उसका को वैसा सुख नहीं होता जैसा सब प्रकार
के रसों के भोगने वाले को होता है। और जो ईश्वर अन्त वाले कर्मों का अनन्त फल देवे
तो उस का न्याय नष्ट हो जाये। जो जितना भार
उठा सके उतना उस पर धरना बुद्धिमानों का काम है। जैसे एक मन भर उठाने वाले के शिर
पर दस मन का भार धरने से भार धरने वाले की निन्दा होती है वैसे अल्पज्ञ अल्प
सामर्थ्य वाले जीव पर अनन्त सुख का भार धरना ईश्वर के लिए ठीक नहीं है। और जो
परमेश्वर नये जीव उत्पन्न करता है तो जिस कारण से उत्पन्न होते हैं वह चुक जाएगा
क्योंकि चाहे कितना ही बड़ा धनकोश हो परन्तु जिस में व्यय है और आय नहीं उसका कभी
न कभी दिवाला निकल ही जाता है। इसलिये यही व्यवस्था ठीक है कि मुक्ति में जाना
वहां से पुन. आना ही अच्छा
है। क्या थोड़े से कारागार से जन्मकारागार दण्ड,
कालेपानी अथवा फांसी को कोई अच्छा मानता है ? जब
वहां से आना ही न जो तो जन्म कारागार से इतना ही अन्तर है कि वहां मजूरी नहीं करनी
पड़ती और ब्रह्म में लय होना समुद्र में डूब जाना है।
मुक्ति के क्या.क्या साधन हैं ?
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जो व्यक्ति मुक्ति चाहे वह जीवनमुक्त अर्थात
जिन मिथ्याभाषणादि पाप कर्मो का फल दुख है,
उनको छोड़ सुख रूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करें। जो कोई दुख
को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहे वह अधर्म को छोड़ धर्म अवश्य करे क्योंकि
दुख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है।
सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात सत्यासत्य, धर्माधर्म,
कर्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय अवश्य करें। एक अन्नमय जो त्वचा से लेकर अस्थिपर्यन्त
का समुदाय पृथिवीमय है। दूसरा प्राणमय जिसमें प्राण अर्थात जो भीतर से बाहर जाता
अपान जो बाहर से भीतर आता समान जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुंचाता, उदान जिससे कण्ठस्थ अन्न पान खैंचा जाता और बल पराक्रम होता है
व्यान जिससे सब शरीर में चेष्ट आदि कर्म जीव करता है। तीसरा मनोमय जिसमें मन के
साथ अहंकार,वाक्, पाद,पाणि, पायु और उपस्थ पांच कर्म.इन्द्रियां हैं चौथा विज्ञानमय जिस में
बुद्धि, चित्त, श्रोत्र,त्वचा, नेत्र,जिह्वा और
नासिका में पांच ज्ञान इंद्रियां जिन से जीव ज्ञानादि व्यवहार करता है। पांचवां
आनन्दमयकोश जिसमें प्रीति, प्रसन्नता, आनन्द, अधिकानन्द,आनन्द और आधार कारण रूप प्रकृति है, ये
पांच कोष कहाते हैं। इन्हीं से जीव सब प्रकार के कर्म, उपासना और ज्ञानादि व्यवहारों को करता है। तीन अवस्था.एक जागृत
दूसरी स्वप्न और तीसरी सुषुप्ति अवस्था कहाती है। तीन शरीर हैं.एक स्थूल जो यह
दीखता है। दूसरा पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच सूक्ष्मभूत और मन तथा बुद्धि इन सत्तरह तत्वों का समुदाय
सूक्ष्म शरीर कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्ममरणादि में भी जीव के साथ रहता है।
इसके दो भेद हैं . एक भौतिक अर्थात जो सूक्ष्म भूतों के अंशों से बना है। दूसरा
स्वाभाविक जो जीव के स्वाभाविक गुणरूप हैं। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी
रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है। तीसरा कारण जिसमें सुषुप्ति
अर्थात गाढ़ निद्रा होती है वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के
लिए एक है। चौथा तुरीय शरीर वह कहाता है जिस में समाधि से परमात्मा के आनन्दस्वरूप
में मग्न जीव होते हैं। इसी समाधि संस्कारजन्य शुद्ध शरीर का पराक्रम मुक्ति में
भी यथावत सहायक रहता है। इन सब कोष,
अवस्थाओं से जीव पृथक है क्योंकि यह सब को विदित है कि अवस्थाओं से जीव पृथक है
क्योंकि जब मृत्यु होती है तब सब कोई कहता है कि जीव निकल गया यही जीव सब का
प्रेरणा,सब का धर्ता, साक्षीकर्ता, भोक्ता कहाता
है। जो कोई ऐसा कहे कि जीव कर्ता भोक्ता नहीं तो उस को जानो कि वह अज्ञानी,अविवेकी है। क्योंकि बिना जीव के जो ये सब जड़ पदार्थ हैं इन को
सुख.दुख का भोग वा पाप पुण्य कर्त्तत्व कभी नहीं हो सकता। हां, इन के सम्बन्ध से जीव पाप पुण्यों का कर्ता और सुख और दुखों का
भोक्ता है। जब इन्द्रियां अर्थों में मन इन्द्रियों और
आत्मा में मन के साथ संयुक्त होकर प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों
में लगाता है तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय भीतर से आनन्द, उत्साह, निर्भयता और
बुरे कर्मों में भय शंका,लज्जा उत्पन्न
होती है। वह अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्तता
है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है और जो विपरीत वर्तता है वह बन्धजन्य
दुख भोगता है।
दूसरा साधन वैराग्य है. अर्थात जो विवेक से
सत्यासत्य को जाना हो, उसमें से
सत्याचरण का ग्रहण और असत्याचरण का त्याग करना विवेक है. जो पृथिवी से लेकर
परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के गुणएकर्म,
स्वभाव से जानकर उस की आज्ञा पालन और उपासना में तत्पर होना, उससे विरुद्ध न चलना सृष्टि से उपकार लेना वैराग्य कहाता है। तत्पश्चात
तीसरा साधन है. षटक सम्पत्ति अर्थात छह प्रकार के कर्म करना.एक शम जिससे अपने
आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर धर्मचारण में प्रवृत्त रखना । दूसरा दम
जिससे श्रोत्रादि इन्द्रियों और शरीर को व्याभिचारादि बुरे कर्मों से हटा कर
जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना । तीसरा उपरति जिससे दुष्ट करने
वाले पुरुषों से सदा दूर रहना । चौथा तितिक्षा चाहे निदां,स्तुति,हानि लाभ कितना
ही क्यों न हो परन्तु हर्ष शोक की छोड़ मुक्ति साधनों में सदा लगे रहना। पांचवां
श्रद्धा जो वेदादि सत्य शास्त्र और इन के बोध से पूर्ण आप्त
विद्वान सत्योपदेष्टा महाशयों के वचनों पर विश्वास करना। छठा समाधान चित्त की
एकाग्रता । ये छह मिलकर एक साधन तीसरा कहाता है। चौथा
मुमुक्षुत्व अर्थात जैसे क्षुधा तृषातुर को सिवाय अन्न जल के दूसरा कुछ भी नहीं अच्छा
लगता वैसे बिना मुक्ति के साधन और मुक्ति के दूसरे में प्रीति न होना । ये चार
साधन और चार अनुबन्ध अर्थात साधनों के पश्चात ये कम करने होते हैं। इनमें से जो 1.इन
चार साधनों से युक्त पुरुष होता है वहीं मोक्ष का अधिकारी होता । दूसरा सम्बन्ध
ब्रह्म की प्राप्ति रूप मुक्ति प्रतिपाद्य और वेदादि शास्त्र प्रतिपादक को
यथावत समझ कर अन्वित करना। तीसरा विषयी सब
शास्त्रों का प्रतिपादन विष ब्रह्म उस को प्राप्ति विषय वाले पुरुष का नाम विषयी
है। चौथा प्रयोजन सब दुखों की निवृत्ति और परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्ति का
सुख का होना । ये चार अनुबन्ध कहाते हैं। तदनन्तर
श्रवणचतुष्टय एक श्रवण जब कोई विद्वान उपदेश करें तब शान्त,ध्यान देकर सुनना, विशेष
ब्रह्मविद्या के सुनने में अत्यन्त ध्यान देना चाहिए कि यह सब विद्याओं में
सूक्ष्म विद्या है। सुनकर दूसरा
मनन एकान्त देश में बैठ के सुने हुए का विचार करना। जिस बात में शंका हो पुन. पूछना और सुनते समय भी वक्त और श्रोता उचित समझों तो पूछना और
समाधान करना। तीसरा निदिध्यासन जब सुनने और मनन करने से निसन्देह हो जाए तब
समाधिस्थ हो कर उस बात को देखना समझना कि वह जैसा सुना था, विचारा था वैसा ही है वा नहीं ?
ध्यान योग से देखना । चौथा साक्षात्कार अर्थात जैसा पदार्थ का स्वरूप गुण और
स्वभाव हो वैसा यथातथ्य जान लेना ही श्रवणचतुष्टय कहाता है। सदा तमोगुण अर्थात
क्रोध, मलिनता,आलस्य, प्रमाद आदि रजोगुण अर्थात ईर्ष्या,
द्वेष, काम,
अभिमान,विक्षेप आदि
दोषों से अलग होके सत्व अर्थात शान्त प्रकृति,
पवित्रता, विद्याए विचार
आदि गुणों को धारण करे। मैत्री यानी सुखी जनों में
मित्रता, करुणा यानी
दुखी जनो पर दया, मुदिता यानी
पुण्यात्माओं से हर्षित होना, उपेक्षा यानी
दुष्टात्माओं में न प्रीति और न वैर से करना। नित्यप्रति न्यून न्यून दो घण्टा
परयन्त मुमुक्षु ध्यान अवश्य करें जिससे भीतर के मन आदि पदार्थ साक्षात हों। देखो
! अपने चेतनस्वरूप हैं इसी से ज्ञानस्वरूप और मन के साक्षी हैं क्योंकि जब मन
शान्त, चञ्चल,
आनन्दित वा विषादयुक्त होता है उस को यथावत देखते हैं वैसे ही इन्द्रियां प्राण
आदि का ज्ञाता, पूर्वदृष्ट का
स्मरणकर्ता और एक काल में अनेक पदार्थों के वेत्ता,धारणकर्षणकर्ता
और सब से पृथक हैं। जो पृथक न होते तो स्वतन्त्र कर्ता इनके प्रेरक अधिष्ठाता कभी
नहीं हो सकते।
अविद्याऽस्मितारागद्वषाभिनिवेशा: पञ्च क्लेशाः ।
पृथक वर्तमान बुद्धि को आत्मा से भिन्न न समझना
अस्मिता, सुख में प्रीति
राग, दुख में अप्रीति द्वेष और सब
प्राणिमात्र को यह इच्छा सदा रहती है कि मैं सदा शरीरस्थ रहूं, मरू नहीं, मृत्यु दुख से
त्रास अभिनिवेश कहाता है। इन पांच क्लेशों को योगाभ्यास विज्ञान से छुड़ा के
ब्रह्म को प्राप्त हो के मुक्त के परमानन्द को भोगना चाहिए।
साधना से मुक्ति
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किस प्रक्रिया द्वारा साधना.योगाभ्यास करने से
मुक्ति मिलती है, यह विषय इस
साधना से मुक्ति पत्रक में महर्षि पतंजलि रचित योगदर्शन के अनुसार प्रस्तुत योग
दर्शन में बताए गए यम.नियम आदि आठ अंगों का अनुष्ठान करते मन को सभी बुराइयों से
तथा शब्द,स्पष्ट, रूप, रस, गंध इन पांच विषयों की तृष्णा हटाकर ईश्वर में लगाने का नाम साधना
है और जन्म मरणादि सब दुखों से छूट कर ईश्वरीय आनन्द भोगने का नाम मुक्ति है ।
ज्यों.ज्यों साधक योगाभ्यास में सफलता प्राप्त करता जाता है। त्यों.त्यों उसका
स्तर ऊंचा होता जाता है और मुक्ति के साधनों को हासिल करने में सफल होता जाता है।
साधना के प्रारम्भिक स्तर में योगाभ्यासी व्यवहार में यम.नियमों का पालन करता हुआ
स्थिरतापूर्वक ईश्वर का ध्यान करने के लिए सिद्धासन आदि कोई आसन लगाता है तथा मन
को रोकने के लिए प्राणायाम करता है। मन के रुक जाने
पर नेत्रादि इन्द्रियों का अपने.अपने रूपादि विषयों के साथ संबंध नहीं रहता अर्थात
इन्द्रियां शान्त होकर अपना कार्य बंद कर देती है। इस स्थिति का नाम प्रत्याहार है। इस
प्रकार अधिकार में किए मन को ईश्वर के लिए किसी स्थान पर स्थिर कर देने का नाम
धारणा है। धारणा की स्थिति सम्पादित करके ईश्वर को प्राप्त करने के किए ईश्वर के
गुण.कर्म.स्वभाव का निरंतर चिंतन कर पाना ध्यान कहलाता है। ध्यान करने से साधक को
तीन अनादि तत्व ईश्वर.जीव.प्रकृति के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है, इस स्थिति को अपर वैराग्य नाम से कहा गया है। अपर
वैराग्य की प्राप्ति के पश्चात साधक को सम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती है। इस
स्थिति में जातक की बुद्धि ऋतम्भरा यानी सत्य को ही धारण करने वाली बन जाती है। सम्प्रज्ञात
समाधि की चार अवस्थाएं होती हैं.वितर्क,विचार, आनंद व अस्मिता। ये क्रमश:
उत्तरोत्तर ऊंची अवस्थाएं हैं। इनमें साधक को 5 स्थूल भूतों, 5 सूक्ष्म भूतों,5
ज्ञानेन्द्रियों, 5
कर्मेन्द्रियों, 1 मन, 1 बुद्धि, 1
अहंकार,मूल प्रकृति तथा
स्वयं अपना जीवात्मा का साक्षात्कार होता है। सम्प्रज्ञात समाधि के बाद साधक को
परवैराग्य की प्राप्ति होती है। उस स्थिति में
ईश्वर के आनंद, ज्ञान,बल आदि गुणों को जानकर ईश्वर के प्रति अनन्य प्रम व श्रद्धा उत्पन्न
होती है। इससे साधक को संसार के उपादान कारण मूल प्रकृति अर्थात सत्व.रज.तम नाम
तीनों गुणों के प्रति तृष्णा समाप्त हो जाती है। परवैराग्य के पश्चात साधक को
ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इस स्थिति को योग दर्शन
में असंप्रज्ञात समाधि नाम से कहा गया है। असंप्रज्ञात
समाधि को लम्बे काल तक लगा कर साधक ईश्वर से विशेष ज्ञान,बलादि देता है। यह स्थिति प्राप्त करने वाले साधक को कुशल चरमदेह
जीवन मुक्त नाम से कहा गया है। जीवन मुक्त व्यक्ति जब शरीर छोड़ता हे तब उसे नया
शरीर नहीं मिलता,वह परमपिता के
समीप रहता हुआ 31 नील 10 खरब 40
अरब वर्ष तक आनन्द भोगता है। इसी को नितान्त मुक्ति पूर्ण मुक्ति कहते हैं। यही
मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है।
जीव.देह और परमात्मा
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जीव ब्रह्म होने से वस्तुत: जीव का निरोध अर्थात् न कभी आवरण में आया, न जन्म लेता, न बन्ध है और न
साधक अर्थात् न कुछ साधना करने हारा है। न छूटने की इच्छा करता और न इसकी कभी
मुक्ति है क्योंकि जब परमार्थ से बन्ध ही नहीं हुआ तो मुक्ति क्या ? यह नवीन वेदान्तियों का कहना सत्य नहीं क्योंकि जीव का स्वरूप अल्प
होने से आवरण में आता,शरीर के साथ प्रकट
होने रूप में जन्म लेता,पापरूप कर्मों
के फल भोगरूप बन्धन में फंसता,उसके छुड़ाने का
साधन करता, दुख से छूटने
की इच्छा करता और दुखों से छूट कर परमान्द परमेश्वर को प्राप्त होकर मुक्ति को भी
भोगता है। ये सब धर्म देह और अन्त:करण के हैं। जीव के नहीं क्योंकि जीव तो पाप पुण्य से रहित
साक्षीमात्र है। शीतोष्णादि शरीरादि के धर्म है। आत्मा निर्लेप है ? इसका जवाब यह आया है कि देह और अन्त:करण
जड़ हैं उनको शीतोष्ण प्राप्ति और भोग नहीं है। जैसे पत्थर को शीत और उष्ण का भान
वा भोग नहीं है। जो चेतन मनुष्यादि प्राणी उसका स्पर्श करता है उसी को शीत उष्ण का
भान और भोग होता है। वैसे प्राण भी जड़ हैं। न उनको भूख न पिपासा किन्तु प्राण
वोले जीव को क्षुधा,तृषा लगती है।
वैसे ही मन भी जड़ हैं। उन उसको हर्ष, न
शोक हो सकता है किन्तु मन से हर्ष,शोक,दुख.सुख का भोग जीव करता है। जैसे बहिष्करण श्रोत्रादि इन्द्रियों से अच्छे
बुरे शब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी.दुखी होता है वैसे ही अन्तःकरण अर्थात
मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार से संकल्प, विकल्प, निश्चय,स्मरण और अभिमान
का करने वाला दण्ड और मान्य का भागी होता है। जैसे तलवार से मारने वाला दण्डनीय होता
है तलवार नहीं होती वैसे ही देहिन्द्रय अन्त:करण
और प्राणरूप साधनों से अच्छे बुरे कर्मों का कर्ता जीव सुख दुख का भोक्ता है। जीव
कर्मों का साक्षी नहीं किन्तु कर्ता भोक्ता है । कर्मों का साक्षी तो एक अद्वितीय
परमात्मा है। जो कर्म करने वाला जीव है वहीं कर्मों में लिप्त होता है, वह ईश्वर साक्षी नहीं है। जीव ब्रह्म का
प्रतिबिम्ब है? जैसे दर्पण के
टूटने.फूटने से बिम्ब की कुछ हानि नहीं होती,इसी
प्रकार अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जीव तब तक है जब तक वह अन्तःकरणोपाधि
है। जब अन्तरूकरण नष्ट हो गया तब जीव मुक्त है ? यह
बालकपन की बात है क्योंकि प्रतिबिम्ब साकार का आकार में होता है। जैसे मुख और
दर्पण आकार वाले हैं और पृथक भी हैं, जो
पृथक न हो तो भी प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। ब्रह्म निराकार, सर्व व्यापक होने से उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। देखो, गम्भीर स्वच्छ जल में निराकार और व्यापक आकाश का आभास पड़ता है। इसी
प्रकार स्व्च्छ अन्त:करण में
परमात्मा का आभास है। इसलिये इसको चिदाभास कहते हैं
? यह बालबुद्धि का मिथ्या प्रलाप है क्योंकि आकाश दृश्य नहीं तो उस को
आंख से कोई भी क्यों कर देख सकता है। यह जो ऊपर को नीला और धुंधलापन दीखता है वह
आकाश नीला दीखता है वा नहीं ? उत्तर आया
नहीं। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर वह है क्या ?
जवाब यह है कि अलग.अलग पृथिवी,जल और अग्नि के
त्रसरेणु दीखते हैं। उसमें जो नीलता दीखती है वह अधिक जल जो कि वर्षता है सो वही
नीला है जो धुंधलापन दीखता है वह पृथिवी से धूल उड़कर वायु में घूमती है वह दीखती
है और उसी का प्रतिबिम्ब जल वा दर्पण में दीखता है आकाश का कभी नहीं। जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और
महदाकाश के भेद व्यवहार में होते हैं वैसे ही ब्रह्म के ब्रह्माण्ड और अन्त:करण उपाधि के भेद से ईश्वर और जीव नाम होता है। जब घटादि नष्ट हो
जाते है तब महाकाश ही कहाता है ? यह भी बात
अविद्वानों की है क्योंकि आकाश कभी छिन्न.भिन्न नहीं होता। व्यवहार में भी घड़ा
लाओ इत्यादि व्यवहार होते हैं। कोई नहीं कहता कि घड़े का आकाश लाओ। इसलिये यह बात
ठीक नहीं है।
कृतिः.मानव कल्याण निधि
लेखकः- .प0 महेंद्र कुमार
आर्य, पूर्व प्रधान. आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर
नोएडा, जिलाः. गौतमबुद्धनगर हैं।