चौधरी शौकत अली चेची
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में हादसे होना कोई नई बात नहीं, लेकिन जब वे लगातार होते रहें, जब उनसे सीख लेने की प्रक्रिया कमजोर हो, और जब जवाबदेही धुंधली हो जाए — तब सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या हमारी व्यवस्था इतने बड़े देश को सुरक्षा के मानकों पर संभाल पाने में सक्षम है? और अगर नहीं, तो हमें कहाँ और कैसे सुधार करने की आवश्यकता है?
अहमदाबाद विमान हादसा: केवल एक दुर्घटना?
12 जून 2025 को हुए अहमदाबाद विमान हादसे ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। सैकड़ों लोगों की जानें गईं, जिनमें कई विदेशी नागरिक भी थे। हादसों पर संवेदना व्यक्त करना मानवीय कर्तव्य है, लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि हम ऐसी घटनाओं के पीछे छुपे कारणों की गहराई से समीक्षा करें। केवल इसे “दुर्घटना” कहकर छोड़ देना शायद पर्याप्त नहीं है।
क्या हादसे रोके नहीं जा सकते?
इतिहास गवाह है कि पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में जानें ट्रेन दुर्घटनाओं, भगदड़ों, चिकित्सा संस्थानों की लापरवाही, और पुल या इमारतों के गिरने जैसी घटनाओं में गई हैं। यह केवल आकस्मिक घटनाएं नहीं, बल्कि संकेत हैं कि हमारी व्यवस्थाओं में सुधार की आवश्यकता है।
- बालेश्वर ट्रेन हादसा (2023) – 293 मौतें
- गोरखपुर मेडिकल त्रासदी (2017) – ऑक्सीजन की कमी से 65 बच्चों की मृत्यु
- मोरबी पुल हादसा (2022) – 141 मौतें
- हाथरस भगदड़ (2024) – 123 मौतें
- कोरोना संकट (2020–21) – ऑक्सीजन की कमी से हजारों मौतें
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि तकनीकी खामियों, भीड़ प्रबंधन की कमी, और इमरजेंसी रिस्पॉन्स सिस्टम में सुधार की आवश्यकता है। हादसों की संख्या को कम करने के लिए न केवल तकनीक बल्कि इच्छाशक्ति और प्रशासनिक दक्षता की जरूरत है।
आस्था बनाम ज़िम्मेदारी
कई बार हम हादसों को "भगवान की मर्जी" कहकर नजरअंदाज कर देते हैं। यह मानवीय स्वभाव हो सकता है, लेकिन सार्वजनिक जीवन में, खासकर जब बात सैकड़ों लोगों की जान की हो, तो सुरक्षा की ज़िम्मेदारी व्यवस्थाओं और नीतियों की होती है। इंसानी जान के साथ यह कहना कि "जो बच गया, वो भाग्यशाली" — एक निष्क्रिय सोच को बढ़ावा देता है।
मीडिया और जनजागरण की भूमिका
समाज के सजग अंग के रूप में मीडिया की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मुद्दों की तह तक जाए, सवाल पूछे, और जनता को तथ्यों से अवगत कराए। हादसों पर बहस धार्मिक या भावनात्मक मुद्दों पर केंद्रित करने की बजाय प्रशासनिक खामियों और सुधार की जरूरतों पर होनी चाहिए।
संवेदनशीलता, जवाबदेही और सुधार की आवश्यकता
यह आवश्यक नहीं कि हर हादसे के बाद किसी पर आरोप ही लगे, लेकिन यह ज़रूरी है कि:
- हर घटना की निष्पक्ष और समयबद्ध जांच हो।
- सुरक्षा मानकों का पालन और निगरानी नियमित रूप से की जाए।
- हादसों के बाद पीड़ितों को न्याय और सहायता मिले — और भविष्य के लिए सीख ली जाए।
- पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर की गुणवत्ता व सुरक्षा को लेकर राजनीति से परे जाकर चर्चा और क्रियान्वयन हो।
निष्कर्ष: बदलाव की शुरुआत संवाद से
भारत में हर नागरिक की सुरक्षा एक प्राथमिक अधिकार है, और उसके लिए सभी स्तरों पर जिम्मेदारी साझा करनी होगी — न केवल सरकार, बल्कि नागरिक, मीडिया और सामाजिक संस्थाएं भी इस दायरे में आती हैं। आलोचना केवल आलोचना के लिए नहीं, बल्कि सुधार और जवाबदेही की दिशा में संवाद की एक कड़ी होनी चाहिए।
हम सबकी भूमिका है — सिर्फ़ रोने और अफसोस करने की नहीं, बल्कि जागने, सोचने और जागरूक करने की भी।
जय हिंद।
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लेखक: चौधरी शौकत अली चेची राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, किसान एकता संघ एवं पिछड़ा वर्ग सचिव, उत्तर प्रदेश (सपा) है।