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लोहड़ी पर्व पर विशेष:--- लोहडी त्यौहार को वसंत ऋतु के आगमन के तौर पर भी मनाया जाता है

चौधरी शौकत अली चेची
लोहड़ी त्यौहार मनाने का मुख्य उद्देश्य जानकारों ने अलग-अलग उद्देश्यों से दर्शाया है,  प्रस्तुत हैं पुराणों के अनुसार  कुछ मुख्य अंश है कि हर वर्ष 13 जनवरी को लोहडी का त्यौहार मनाया जाता है । ज्योतिष के अनुसार  14 जनवरी 2023 को लोहड़ी का पर्व मनाया जा रहा है, हर वर्ष मकर संक्रांति से 1 दिन पहले मनाया जाता है । इस वर्ष मकर संक्रांति का त्यौहार 15 जनवरी 2023 के दिन मनाया जाएगा। आज  14 जनवरी को लोहडी की पूजा का शुभ मुहूर्त रात 8:57  है।  लोहड़ी मनाने की बहुत सारी खास वजह होती हैं । इस अवसर पर नई फसल की पूजा की जाती है। लोहड़ी माता की पूजा होती है ,  मुख्य रुप से सिक्ख समुदाय के लोग लोहड़ी पर्व मनाते हैं  । मकर संक्रांति से पहली वाली रात को सूर्यास्त के बाद मनाया जाने वाला पर्व लोहाडी का अर्थ -ल( लकड़ी )+ओह (सूखे उपले)+ डी (रेवड़ी) इस पर्व के 20- 25 दिन पहले ही लोग लोहडी के लोकगीत गाकर लकड़ी और उपले इकट्ठे  करते हैं, फिर एकत्रित की गई सामग्री को चौराहे- मोहल्ले के किसी खुले स्थान पर आग जलाते हैं।
इस उत्सव को सिक्ख  समाज बहुत ही जोश खरोश से मनाते हैं।  गोबर के उपलों की माला बनाकर मन्नत पूरी होने की खुशी में लोहड़ी के समय जलती हुई , अग्नि में उन्हें भेंट किया जाता है, इसे चरखा चढ़ाना कहते हैं।
 वैसे तो पूरे भारत में हर्षोल्लास से मनाया जाता है, लेकिन लोहड़ी उत्तर भारत का एक लोकप्रिय त्योहार है।. इसे खास तौर पर पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर मुख्य रूप से फसल की कटाई व बुवाई के  रूप में मनाया जाता है। लोहड़ी . खुशियों की सौगात देने वाला ये त्यौहार हर किसी को बहुत पसंद होता है।   लोहड़ी मनाने वाले किसान इस दिन को अपने लिए नए साल की शुरुआत मानते हैं। 
बहुत से लोग लोहड़ी को साल का सबसे छोटा दिन और रात सबसे लंबी के तौर पर मनाते हैं।  लोहड़ी के दिन खासतौर पर सुना जाता है जैसे दुल्ला भट्टी , होलिका और लोहड़ी की कहानी आदि लेखों में पौराणिक इतिहास के पन्नों में दर्ज है। इन दिनों पूरे देश में पतंगों का ताता लगा रहता हैं।  लोहड़ी की संध्या पर सभी एक साथ त्यौहार को मनाते हैं। इस दौरान सभी जमकर लोहड़ी के गीत गाकर खुशियां मनाते हैं। लोहड़ी की रात खुली जगह पर आग जलाई जाती है।  लोग लोकगीत गाते हुए नए धान के लावे के साथ खील, मक्का, गुड़, रेवड़ी, मूंगफली आदि उस आग को अर्पित कर परिक्रमा करते हैं। लोहड़ी मनाने वाले  किसान इस मौके पर फसल की पूजा भी करते हैं। गन्ने की कटाई के बाद उससे बने गुड़ को इस त्यौहार में इस्तेमाल किया जाता है।  पंजाबी समाज में इस पर्व की तैयारी कई दिनों पहले ही शुरू हो जाती है। इसका संबंध मन्नत से जोड़ा गया है अर्थात जिस घर में नई बहू आई होती है या घर में संतान का जन्म हुआ होता है, तो उस परिवार की ओर से खुशी बांटते हुए लोहड़ी मनाई जाती है। सगे-संबंधी और रिश्तेदार उन्हें इस दिन विशेष सौगात के साथ बधाइयां  देते हैं। पुराणों के अनुसार लोहड़ी को सती के त्याग के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता हैं। कथानुसार जब प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती के पति महादेव शिव का तिरस्कार किया था और अपने जामाता को यज्ञ में शामिल ना करने से उनकी पुत्री ने अपनी आपको को अग्नि में समर्पित कर दिया था। उसी दिन को एक पश्चाताप के रूप में प्रति वर्ष लोहड़ी पर्व मनाया जाता हैं और इसी कारण घर की विवाहित बेटी को इस दिन तोहफे दिये जाते हैं और भोजन पर आमंत्रित कर उसका मान सम्मान किया जाता हैं। इसी ख़ुशी में श्रृंगार का सामान सभी विवाहित महिलाओ को बाँटा जाता हैं।लोहड़ी त्यौहार मनाने के पीछे एक और एतिहासिक कथा भी हैं, जिसे दुल्ला भट्टी के नाम से जाना जाता हैं। यह कथा अकबर के शासनकाल की हैं उन दिनों दुल्ला भट्टी पंजाब प्रान्त का सरदार था, इसे पंजाब का नायक कहा जाता था. उन दिनों संदलबार नामक एक जगह थी, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा हैं. वहाँ लड़कियों की बाजारों में बोली लगा कर बेचा जाता था। तब दुल्ला भट्टी ने इस का विरोध किया और लड़कियों को सम्मानपूर्वक इस दुष्कर्म से बचाया और सामाजिक तथा उनकी इच्छा अनुसार  शादी करवाकर उन्हें सम्मानित जीवन दिया। इस विजय के दिन को लोहड़ी के गीतों में गाया जाता हैं और दुल्ला भट्टी को याद किया जाता हैं। लोहड़ी आने के कई दिनों पहले ही युवा एवं बच्चे लोहड़ी के गीत गाते हैं. पन्द्रह दिनों पहले  गीत गाना शुरू कर दिया जाता हैं जिन्हें घर-घर जाकर गया जाता हैं. इन गीतों में वीर शहीदों को याद किया जाता हैं जिनमे दुल्ला भट्टी के नाम विशेष रूप से लिया जाता है।  बहुत से लोगों का मानना है कि लोहड़ी का नाम संत कबीर की पत्नी लोही के नाम पर पड़ा. पंजाब के कुछ ग्रामीण इलाकों में इसे लोई भी कहा जाता है। लोहड़ी को पहले कई जगहों पर लोह भी बोला जाता था. लोह का मतलब होता है लोहा. इसे त्यौहार से जोड़ने के पीछे बताया जाता है कि फसल कटने के बाद उससे मिले अनाज की रोटियां तवे पर सेकी जाती हैं. तवा लोहे का होता है।  पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि लोहड़ी होलिका की बहन थीं. लोहड़ी अच्छी प्रवृत्ति वाली थीं। इसलिए उनकी पूजा होती है और उन्हीं के नाम पर त्यौहर  नाया जाता है। कई स्थानों पर लोहड़ी को तिलोड़ी के तौर पर भी जाना जाता था। यह शब्द तिल और रोड़ी यानी गुड़ से मिलकर बना है. बाद में तिलोड़ी को ही लोहड़ी कहा जाने लगा। लोहड़ी के त्यौहार को वसंत ऋतु के आगमन के तौर पर भी मनाया जाता है. इसलिए रबी की फसलों से उपजे अन्न को अग्नि में समर्पित करते हैं, नई फसलों का भोग लगाकर देवताओं से धन और संपन्नता की प्रार्थना करते है।

 लेखक:--- चौधरी शौकत अली चेची, किसान एकता संघ के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष हैं।