सत्यार्थ प्रकाश--
प0 महेंद्र कुमार आर्य
वेदादि शास्त्रों में ओ३म तो केवल परमात्मा का
ही नाम है तथा अग्नि,
वायु, सूर्यादि नामों
से प्रकरण व विशेषणों के आधार पर परमात्मा के अतिरिक्त भौतिक पदार्थों का भी ग्रहण
होता है। (प्रथमसमुल्लासाधारित)
ओं खम्ब्रह्म।१। (यजुःअ- ४०। म-१६)
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत । २ । (छान्दोग्य उपनिषत्)
ओमित्येतदक्षरमिद सर्वं तस्योपव्याख्यानम्।३। (माण्डूक्य)
तत्ते
पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।४। (कठोपनिषद् वल्ली २ । मं- १५)
(प्रथमसमु-)
स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करने वाला पशुओं का
बड़ा भाई
जैसे पशु बलवान् हो कर निर्बलों को दुःख देते
और मार भी डालते हैं। जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य
स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु
पशुवत् हैं और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और
जो स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करता रहता है वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।
(भूमिका)
सत्यमेव जयति नानृतम्
जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त
होता है, उससे स्वार्थी
लोग विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु त्यमेव जयति
नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः । अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और
सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आप्त
लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते।
(भूमिका)
ऐसा स्वभाव विद्वानों का नहीं होता
एक मनुष्य जाति में बहका कर, विरुद्ध बुद्धि कराके, एक दूसरे को शत्रु बनाए लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहि. है।
(भूमिका)
जीव जिसका मन से ध्यान करता है उसको प्राप्त होता है
यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति यद्वाचा वदति तत्
कर्मणा
करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते ।
यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है। जीव जिसका मन से ध्यान करता है उसको वाणी से बोलता, जिसको वाणी से बोलता उसको कर्म से करता जिसको कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है।
(प्रथमसमुल्लास.)
टिप्पणी. (क) हमारे मन में यदि महान् विचार हैं तो हम महान् बन जायेंगे। यदि नीच
विचार हैं तो नीच बन जायेंगे। प्रारम्भ विचारों से होता है। अत. सतत मन में उत्तम विचारों को बनाये
रखना चाहिए। वाणी का प्रभाव भी व्यवहार पर पड़ता है। जो व्यक्ति वाणी से ऐसा बोलता
है कि मैं उसको मार दूँगा,
उसका धन लूट लूँगा वह शरीर से भी वैसा करेगा। अतः वाणी का प्रयोग बहुत सावधानी से
करना चाहिए जिससे कि हमारा शारीरिक व्यवहार बिगड़ न जाये। स्वाध्याय, सत्सङ्ग, ईश्वरस्तुतिप्रार्थना, जपादि इसमें बहुत सहायक होते हैं।
साथ.साथ व्यक्ति अपने दोषों को भी बलपूर्वक उभरने न दे। निरन्तर पवित्र आहार.विहार
रखे।
जो.जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं उन.उनका ग्रहण करो और जो.जो दुष्ट कर्म हो उनका त्याग कर दिया करो। (द्वितीयसमुल्लास.)
पुरुषों व स्त्रियों को न्यून से न्यून अवश्य क्या पढ़ना चाहिए?
जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिये। वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्पविद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये। क्योंकि इनके सीखे बिना सत्याऽसत्य का निर्णय, पति आदि से अनुकूल वर्तमान, यथायोग्य सन्तानोत्पति, उनका पालनए वर्द्धन और सुशिक्षा करना, घर के सब कार्यों को जैसा चाहिये वैसा करना कराना वैद्यक विद्या से औषधवत् अन्न पान बना और बनवाना नहीं कर सकती। जिससे घर में रोग कभी न आवे और सब लोग सदा आनन्दित रहें। शिल्पविद्या के जाने बिना घर का बनवाना,l वस्त्र आभूषण आदि का बनाना बनवाना के बिना सब का हिसाब समझना समझाना, वेदादि शास्त्र विद्या के बिना ईश्वर और धर्म को न जानके अधर्म से कभी नहीं बच सके। (तृतीयसमुल्लासः)
सब दानों से वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है
सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते ।
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ।। मनुण् ।।
संसार
में जितने दान हैं अर्थात् जल,
अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र,
तिल, सुवर्ण और
घृतादि इन सब दानों से वेदविद्या का दान अतिश्रेष्ठ है। इसलिये जितना बन सके उतना
प्रयत्न तन, मन, धन से विद्या की वृद्धि में किया
करें। (तृतीयसमुल्लास.)
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्र भार्य्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्।। मनु०।।
जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है उसी कुल में आनन्द लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती है और जहाँ विरोधए कलह होता है वहाँ दुःखए दारिद्र्य और निन्दा निवास करती है। इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्य्यावर्त्त में परम्परा से चली आती है वही विवाह उत्तम है। जब स्त्री पुरुष विवाह करना चाहैं तब विद्याए विनयए शीलए रूपए आयुए बलए कुलए शरीरए का परिमाणादि यथायोग्य होना चाहिये। जब तक इन का मेल नहीं होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता और न बाल्यावस्था में विवाह करने से सुख होता।
युवा सुवासाः परिवीत आगात्स उ श्रेयान्भवति जायमानः ।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा दवे यन्तः ।।१।।
आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः ।
नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ।।२।।
पूर्वीरहं शरदः शश्रमाणा दोषावस्तो रुषसो जरयन्तीः ।
मिनाति श्रियं जरिमा तनूनामप्यू नु पत्नीर्वृषाणो जगम्युरू ।।३।।
.ऋ० मं० १। सू० १७९। मं० १।।
जो पुरुष ;(परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीतए ब्रह्मचर्य्य सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त ;सुवासाः सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रह्मचर्य्ययुक्त ;युवा पूर्ण ज्वान होके विद्याग्रहण कर गृहाश्रम में ;आगात्द्ध आता है ; स उद्ध वही दूसरे विद्याजन्म में ;जायमानः प्रसिद्ध होकर ;श्रेयान्द्ध अतिशय शोभायुक्त मंगलकारी ;भवतिद्ध होता है ;स्वाध्यःद्ध अच्छे प्रकार ध्यानयुक्त ;मनसाद्ध विज्ञान से ;देवयन्तः विद्यावृद्धि की कामनायुक्त ;धीरासः धैर्ययुक्त ;कवयः विद्वान् लोग ;तम्द्ध उसी पुरुष को ;उन्नयन्तिद्ध उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं और जो ब्रह्मचर्य्यधारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये विना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं वे स्त्री पुरुष नष्ट भ्रष्ट होकर विद्वानों में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते।।१।।
जो ;(अप्रदुग्धाः) किसी से दुही न हो उन ;धेनवः गौओं के समान ;अशिश्वीः बाल्यावस्था से रहित ;सबर्दुघाः सब प्रकार के उत्तम व्यवहारों का पूर्ण करनेहारी ;शशयाः कुमारावस्था को उल्लंघन करने हारी ;नव्यानव्याः नवीन.नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण ;भवन्तीःद्ध वर्त्तमान ;युवतयः पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियां ;देवानाम्द्ध ब्रह्मचर्य, सुनियमों से पूर्ण विद्वानों के ;एकम्द्ध अद्वितीय ;महत्द्ध बड़े ;असुरत्वम्द्ध प्रज्ञा शास्त्रशिक्षायुक्त प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई तरुण पतियों को प्राप्त होके ;आधुनयन्ताम्द्ध गर्भ धारण करें कभी भूल के भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश उस से अधिक स्त्री का नाश होता है।।२।।
जैसे ;नुद्ध शीघ्र ;शश्रमाणाः अत्यन्त श्रम करनेहारे ;(वृषणः) वीर्य सींचने में समर्थ पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष ;(पत्नीः) युवावस्थास्थ हृदयों को प्रिय स्त्रियों को ;जगम्युः प्राप्त होकर पूर्ण शतवर्ष वा उससे अधिक वर्ष आयु को आनन्द से भोगते और पुत्र पौत्रदि से संयुक्त रहते रहैं वैसे स्त्री पुरुष सदा वर्तें, जैसे ;(पूर्वीः) पूर्व वर्त्तमान ;(शरदः) शरद् ऋतुओं और ;जरयन्तीः वृद्धावस्था को प्राप्त कराने वाली ;उषसः प्रातःकाल की वेलाओं को ;दोषाः रात्री और ;वस्तोः दिन ;तनूनाम्द्ध शरीरों की ;श्रियम्द्ध शोभा को ;जरिमाद्ध अतिशय वृद्धपन बल और शोभा को ;मिनातिद्ध दूर कर देता है वैसे ;अहम्द्ध मैं स्त्री वा पुरुष ;उद्ध अच्छे प्रकार ;अपिद्ध निश्चय करके ब्रह्मचर्य्य से विद्या शिक्षा शरीर और आत्मा के बल और युवावस्था को प्राप्त हो ही के विवाह करूँ इस से विरुद्ध करना वेदविरुद्ध होने से सुखदायक विवाह कभी नहीं होता।।३।।
जब तक इसी प्रकार सब ऋषि.मुनि राजा महाराजा
आर्य्य लोग ब्रह्मचर्य्य से विद्या पढ़ ही के स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश
की सदा उन्नति होती थी। जब से यह ब्रह्मचर्य्य से विद्या का न पढ़नाए बाल्यावस्था
में पराधीन अर्थात् माता पिता के आधीन विवाह होने लगाए तब से क्रमशः आर्य्यावर्त्त
देश की हानि होती चली आई है। इस से इस दुष्ट काम को छोड़ के सज्जन लोग पूर्वोक्त
प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करें। सो विवाह वर्णानुक्रम से करें और वर्णव्यवस्था
भी गुणए कर्मए स्वभाव के अनुसार होनी चाहिये।
अथ वानप्रस्थसंन्यासविधि वक्ष्यामः
ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही
भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्।।
.शत०
कां० १४।।
मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्य्याश्रम को
समाप्त करके गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होके संन्यासी होवें अर्थात्
अनुक्रम से आश्रम का विधान है।
एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः।
वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः।।१।।
गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः।
अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।।२।।
सन्त्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम्।
पुत्रेषु भार्यां निःक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव
वा।।३।।
अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम्।
ग्रामादरण्यं निःसृत्य
निवसेन्नियतेन्द्रियः।।४।।
मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा।
एतानेव महायज्ञान् निर्वपेद्विधिपूर्वकम्।।५।।
इस प्रकार स्नातक अर्थात् ब्रह्मचर्य्यपूर्वक
गृहाश्रम का कर्त्ता द्विज अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य गृहाश्रम में ठहर
कर निश्चितात्मा और यथावत् इन्द्रियों को जीत के वन में वसें।।१।।
परन्तु जब गृहस्थ शिर के श्वेत केश और त्वचा
ढीली हो जाय और लड़के का लड़का भी हो गया हो तब वन में जाके वसे।।२।।
सब ग्राम के आहार और वस्त्रदि सब उत्तमोत्तम
पदार्थों को छोड़ पुत्रें के पास स्त्री को रख वा अपने साथ ले के वन में निवास
करे।।३।।
सांगोपांग अग्निहोत्र को ले के ग्राम से निकल
दृढेन्द्रिय होकर अरण्य में जाके वसे।।४।।
नाना प्रकार के सामा आदि अन्नए सुन्दर.सुन्दर
शाकए मूलए फलए फूलए कन्दादि से पूर्वोक्त पञ्चमहायज्ञों को करे और उसी से अतिथि
सेवा और आप भी निर्वाह करें।।५।।
स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः
समाहितः।
दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः।।१।।
अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः।
शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः।।२।।
स्वाध्याय अर्थात् पढ़ने पढ़ाने में नित्ययुक्तए
जितात्माए सब का मित्रए इन्द्रियों का नित्य दमनशीलए विद्यादि का दान देनेहारा और
सब पर दयालुए किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवे इस प्रकार सदा वर्त्तमान करे।।१।।
शरीर के सुख के लिये अति प्रयत्न न करे किन्तु
ब्रह्मचारी रहे अर्थात् अपनी स्त्री साथ
हो तथापि उस से विषयचेष्टा कुछ न करे भूमि में सोवे। अपने आश्रित वा स्वकीय
पदार्थों में ममता न करे। वृक्ष के मूल में वसे।।२।।
तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शान्ता
विद्वांसो भैक्षचर्य्यां चरन्तः।
सूर्य्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रऽमृतः
स पुरुषो ह्यव्ययात्मा।।१।।
.मुण्ड०
खं० २। मं० ११।।
जो शान्त विद्वान् लोग वन में तप
धर्म्मानुष्ठान और सत्य की श्रद्धा करके भिक्षाचरण करते हुए जंगल में वसते हैंए वे
जहाँ नाशरहित पूर्ण पुरुष हानि लाभरहित परमात्मा हैय वहां निर्मल होकर प्राणद्वार
से उस परमात्मा को प्राप्त होके आनन्दित हो जाते हैं।।१।।
अभ्यादधामि समिधमग्ने व्रतपते त्वयि ।
व्रतञ्च श्रद्धां चोपैमीन्धे त्वा दीक्षितो
अहम् ।।१।।
.यजुर्वेदे
अध्याये २०। मन्त्र २४।।
वानप्रस्थ को उचित है कि.मैं अग्नि में होम कर
दीक्षित होकर व्रतए सत्याचरण और श्रद्धा को प्राप्त होऊं.ऐसी इच्छा करके वानप्रस्थ
हो नाना प्रकार की तपश्चर्याए सत्संगए योगाभ्यासए सुविचार से ज्ञान और पवित्रता
प्राप्त करे। पश्चात् जब संन्यासग्रहण की इच्छा हो तब स्त्री को पुत्रें के पास
भेज देवे फिर संन्यास ग्रहण करे।
इति संक्षेपेण वानप्रस्थविधिः।
वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः।
चतुर्थमायुषो भागं त्यक्त्वा संगान्
परिव्रजेत्।। मनु०।।
इस प्रकार वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात्
पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ होके आयु के चौथे भाग में
संगों को छोड़ के परिव्राट् अर्थात् संन्यासी हो जावे।
संकलनकर्ताः- प0 महेंद्र कुमार आर्य, पूर्व प्रधान, आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर नोएडा, जिलाः- गौतमबुद्धनगर हैं।