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आखिर धर्म सिखाता क्या है....

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मानवता का एक ही नारा। कर्म प्रधान हो धर्म हमारा।।
कुमारी प्रियंका रानी
--------------------------- आज के समय मे कुछ  लोग तो धर्म के नाम पर इस कदर खो जाते हैं कि वे बिना कुछ सोचे समझे हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं। वे यह भी नहीं सोचते कि इसके परिणाम क्या होंगें? जबकि उनको यह तक नहीं पता होता कि आखिर धर्म सिखाता क्या है....
एक दिन खाली समय में सोचा कि क्यों न थोडा ऑनलाइन वार्तालाप में प्रतिभाग किया जाये? फिर क्या था एक वार्तालाप चल रही थी ...लैपटॉप खोला और ऑनलाइन वार्तालाप में शामिल हो गये। 
वहाँ देखा तो पहले से ही बातें शुरु हो चुकी थी, बातचीत  का कोई मुख्य विषय या उद्देश्य तो नहीं था बस करंट टॉपिक्स/मुद्दों पर अपने कुछ विचार रखने थे।  
 बातें शुरु हुई और कुछ समय बाद बातों ही बातों में कुछ लोग धर्म की बात करने लगे और ये ही बातें कब बहस मे बदल गई कि पता ही नही चला। इस वार्तालाप मे धर्म की बड़ी बड़ी बात करने वाले कुछ लोगों ने धर्म पर इतनी बड़ी बहस शुरु कर डाली कि वे आपस मे लड़ने को उतारू हो गये ... मुझे आशचर्य तो  ये देख कर हुआ जब मेरे एक सवाल से चारो और शांति छा गयी ...जब मैंने उनसे पूछा क़ि क्या कोई धर्म के दो सिद्धांत और तीन मूल्य बतायेगा ?   आज धर्म के नाम पर बहस करने वाले तो बहुत हैं लेकिन धर्म का मूल उद्देश्य जानने के लिए बहुत कम लोग ही जिज्ञासा रखते है। शायद आज के नौजवानों को धर्म के मूल उद्देश्यों और सिद्धांतों को जानने की आवश्यकता है । शायद इसमें पहले से ही कहीं न कहीं हमारी आपसी समझ की कमी रही है। इसी कमी का फायदा उठाकर “जेम्स मिल” ने भारत के इतिहास को तीन खंडो (हिन्दू , मुस्लिम और ब्रिटिश) में बांटा था। उसको लगा कि भारत में केवल धार्मिक बैर, जातिगत बंधन, और अन्धविश्वाश का ही बोलबाला है, और इस बंटबारे को अधिकांश लोगो ने स्वीकार भी कर लिया था।  क्या किसी समाज को सिर्फ उस समय के शासक के अनुसार धर्म या आपसी  बैर से जोड़कर देखा जाना सही  है ? इसका मतलब तो ये हुआ कि और लोगो के जीवन या तौर तरीको का कोई महत्त्व ही नहीं होता और न ही वे अपने कोई विचार/पक्ष रखते हैं।  क्या समाज को हिन्दू और मुस्लिम दौर कहा जाना ठीक था? क्या इस सारे समाज मे कई तरह के धर्म एक साथ नही चल सकते थे? इसलिए भारतीय इतिहासकारो ने इस बंटवारे को न अपनाकर प्राचीन, मध्यकाल व आधुनिक मे विभाजित किया, क्योंकि वे धर्म के  आधार पर बंटवारे से भारत को नहीं देखते। भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है और यही विचार सार्वजानिक वार्तालाप अथवा वाद विवाद एवं सविधान में व चर्चाओ मे हमेशा मोजूद रहा है, लेकिन आज कुछ लोग तो धर्म के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखने की सोचते हैं, परन्तु ये उनके सिद्धांतो और मूल उद्देश्यों को नही जानना चाहते हैं। ऐसा करके वे अपने ही धर्म को ठेस पहुंचाते हैं।  पीठ से पीठ सटाकर बैठे हुए चार सिंह जो हमारा राज चिह्न है, जिसे शुरू से ही बच्चों को पढाया जाता है कि इसे सम्राट अशोक के सारनाथ स्तम्भ से लिया गया है और हमारा राष्ट्रीय प्रतीक है। लेकिन यह बहुत कम ही बताया जाता है कि अशोक के विचार अपनी प्रजा के लिए क्या थे?  अशोक का मत था कि अगर कोई व्यक्ति अपने धर्म की प्रशंसा या दूसरे धर्म की बुराई करता है तो दोनों ही गलत या दोषपूर्ण हैं। यदि कोई ऐसा करता है तो वह वास्तव में अपने धर्म को ही ज्यादा नुकसान पहुंचता है। अर्थात हर किसी को दूसरे धर्म का भी सम्मान करना चाहिए। किसी से कोई द्वेष्य नहीं रखना चाहिए। सभी धर्म मानवता का पाठ सीखाते हैं। 
लेखक:--  कुमारी प्रियंका रानी ,दनकौर, जिला गौतमबुद्धनगर ने अपने इस लेख मे धर्म और राष्ट्र निर्माण के मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखने की कोशिश की है।