नूतन वर्ष पर ’’मानव कल्याण निधि’’ पुस्तक के रचियता प0 महेंद्र कुमार आर्य की विशेष प्रस्तुति
वेद को ही विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ या पुस्तक माना गया है इस पर कई बार शोध भी हो चुका है और सभी शोधों के एक परिणाम सामने आया है कि वेद सबसे प्राचीन ग्रंथ है। जबकि आर्य लोग तो मानते हैं कि वेद ईश्वरीय वाणी है या ईश्वरीय ज्ञान है।
ईश्वर ने ऋषियों.मुनियों को ज्ञान के माध्यम से
वेद का ज्ञान दिया है। इसके बाद भी अनेक सवाल उठते हैं। चर्चाओं और शास्त्रार्थों
में अनार्य लोग वेदों की उत्पत्ति और उसकी अवधि के बारे में सवाल उठाते रहते हैं
और मनगढंत प्रचार करते रहते हैं।
एतावता कथनेनैवाध्यापकैर्विलसनमोक्षमूराद्यभिधै
यूरोपाख्यखण्डस्थैर्मनुष्यरचितो वेदोऽस्ति श्रुतिर्नास्तीति
यदुक्तं, यच्चोक्तं चतुर्विशं तिरेकोनत्रिंशक्त्रिंशदेककत्रिंशच्य
शतानि वर्षाणि वेदोत्पत्तो व्यतीतानीति तत्सर्वं
भ्रममूलमस्तीति वेद्यम्।
तथैव प्राकृतभाषया व्याख्यानकारिभिरय्येवमुक्तं तदापि भ्रान्तमेवास्तीति च।।
वेद की उत्पत्ति के बारे में अध्यापक
विलसन और मोक्षमूलर सहित अनेक यूरोपीय विद्वानों ने यह बात कही है कि वेद मनुष्य
के रचे हैं किन्तु श्रुति नहीं है,
उनकी यह बात ठीक नहीं है। और दूसरी बात यह है कि कोई कहता है कि वेदों की उत्पत्ति
के मात्र 2400 वर्ष हुए हैं,कोई 2900 वर्ष तो कोई 3000 और कोई 3100
वर्ष ही कह रहा है। इस सभी की यह बात झूठी है क्योंकि इन लोगों ने आर्य लोगों की
नित्यप्रति की दिनचर्या का लेख और संकल्प पठनविद्या को भी यथावत् न सुना और न
विचारा है,
नहीं इतने ही विचार से यह भ्रम उनको नहीं होता। यह जानना अवश्य चाहिये कि वेदों की
उत्पत्ति परमेश्वर से ही हुई है। वेदों की उत्पत्ति में कितने वर्ष हो गए हैं, इस सवाल के जवाब में आया है कि एक वृन्द छानवे करोड़, आठ लाख,
बावन हजार, नौ
सौ छिहत्तर अर्थात 1968053122 वर्ष वेदों की और जगत की उत्पत्ति में
हो गए हैं यह संवत् 77 सतहत्तर मां व्रत रहा है। यह कैसे निश्चय हो कि इतने ही वर्ष और वेद और जगत की उत्पत्ति में
बीत गए हैं, इस
सवाल पर विचार करने के बाद यह जवाब आया कि यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान
है। इससे पूर्व छह मन्वन्तर हो चुके हैं। ये
मन्वन्तर हैं-. 1-स्वायम्भव, 2- स्वारोचिष, 3- औत्तमि, 4- तामस, 5- रेवत, 6- चाक्षुष ये छह मन्वन्तर तो बीत चुके हैं और
सातवां वैवस्वत वर्त रहा है। सावर्णि आदि सात मन्वन्तर आगे भोगेंगे। ये सब मिलके 14
मन्वन्तर होते हैं। और एकहत्तर चतुयुर्गियों का नाम मन्वन्तर धरा गया है सो उसकी
गणना इस प्रकार से है कि 17,28,000 यानी सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्षों
का नाम सतयुग रखा है। 12,96000 यानी बारह लाख छानवे हजार वषों का नाम
त्रेता 8,64000 अर्थात आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का नाम द्वापर
और 4,32,000 अर्थात चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का नाम
कलियुग रखा गया है। आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की
सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है। इन चारों युगों के 43,20,000
तितालिस लाख बीस हजार वर्ष होते हैं। जिनका चतुर्युगी नाम है। एकहत्तर चतुर्युगियों
के अर्थात 30,67,20,000 तीस करोड़, सरसठ लाख और बीस हजार वर्षों की एक मन्वन्तर संज्ञा को है और ऐसे छह
मन्वन्तर मिलकर 1,84,03,20,000 एक अरब,चौरासी करोड़,
तीन लाख और बीस हजार वर्ष हुए और सातवें मन्वन्तर के भोग में यह अट्ठाइसर्वीं
चतुर्युगी है। इस चतुर्युगी में कलियुग के 4,976
चार हजार नौ सौ छिहत्तर वर्षों का तो भोग हो चुका है और बाकी 4,27,024
चार लाख सत्ताइस हजार चौबीस वर्षों का भोग होने बाला है। जानना चाहिए कि 12,05,32, 976
बारह करोड़,
पांच लाख बतौस हजार, नौ
सौ छिहत्तर वर्ष तो वैवस्वत मनु के भोग हो चुके हैं और 18,61,87,024
अठारह करोड़,
एकसठ लाख, सत्तासी हजार
चौबीस वर्ष भोगने के बाकी रह गए हैं। इनमें से यह वर्तमान 77 सतहत्तरवां है, जिसको आर्य लोग विक्रम का 1933
उन्नीस सौ तैंतौसवां संवत् कहते हैं। जो पूर्व
चतुर्युगी लिख आए हैं, उन
एक हजार चतुयुर्गियों की ब्राम्हदिन संज्ञा रखी है और उतनी ही चतु्युर्गियों की
रात्रि संज्ञा जानना चाहिए। सो सृष्टि को उत्पत्ति करके हजार चतुर्युगी पर्यन्त
ईश्वर इस को बना रखता है। इसी का नाम ब्राम्हदिन दिन रखा है। और हजार चतुर्युगी
पर्यन्त सृष्टि को मिटा के प्रलय अर्थात कारण में लीन रखता है। उसका नाम ब्राम्हरात्रि
रखा है अर्थात सृष्टि के वर्तमान होने का नाम दिन और प्रलय का नाम रात्रि है। यह
जो वर्तमान ब्राह्मदिन है इसके 1,96,08,52,976 एक
अरब छानवे करोड़, आठ
लाख, बावन हजार नौ
सौ छिहत्तर वर्ष इस सृष्टि की तथा वेदों की उत्पत्ति में भी व्यतीत हुए हैं और 2,33,32,27,024 दो
अरब तैंतीस करोड़,
बतीस लाख, सत्ताइस हजार
चौबीस वर्ष इस सृष्टि को भोग करने के बाकी रहे हैं। इनमें से अन्त का यह चौबीसवां
वर्ष भोग रहा है। आगे आनेवाले भोग के वर्षों में से एक एक घटाते जाना और गत वर्षों
में क्रम से एक एक वर्ष मिलाते जाना चाहिये जैसे आज पर्यन्त घटाते बढ़ाते आएं हैं। ब्राम्ह दिन और बराम्हरात्रि अर्थात् ब्रह्म जो परमेश्वर उसने संसार
के वर्तमान और प्रलय की संज्ञा की है, इसीलिये इसका नाम ब्राह्मदिन है। इसकी प्रकरण में मनु स्मृति के
श्लोक साक्षी के लिये लिख चुके हैं वह देखे जा सकते हैं इन श्लोकों में दैव वर्षों
की गणना की है,
अर्थात चारों युगों के बारह हजार यानी 12000 वर्षो की देवयुग
संज्ञा की है। इसी प्रकार असंख्या मन्वन्तरों में
जिनकी संख्या नहीं हो सकती अनेक बार सृष्टि हो चुकी है और अनेक बार होगी। सो इस
सृष्टि को सदा से सर्व शक्तिमान् जगदीश्वर सहज स्वभाव से रचता,पालन और प्रलय करता है और सदा ऐसे ही
करेगा। क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति वर्तमान,प्रलय और वेदों की उत्पत्ति के वर्षों को मनुष्य लोग सुख से गिन लें, इसीलिये यह ब्राह्म दिन आदि संज्ञा
बांधी है। और सृष्टि का स्वभाव नया पुराना प्रति मन्वन्तर में बदलता जाता है, इसीलिये मन्वन्तर संज्ञा बांधी
वर्तमान सृष्टि की कल्प संज्ञा और विकल्प संज्ञा की है। सब
संसार की सहस्र संज्ञा है तथा पूर्वोक्त ब्राह्म दिन और रात्रि की सहस्रसंज्ञा ली जाती है
क्योंकि यह मन्त्र सामान्य अर्थ में वर्तमान है। सो हे परमेश्वर ! आप इस हजार
चतुर्युगी का दिन और रात्रि को प्रमाण आदि निर्माण करने वाले हो। इसी प्रकार
ज्योतिषशास्त्र में यथावत् वर्षों की संख्या आर्य लोगों ने गिनी है सो सृष्टि की
उत्पत्ति से लेके आज पर्यन्त दिन दिन गिनते और क्षण से लेके कल्पान्त की गणित
विद्या को प्रसिद्ध करते चले आते हैं, अर्थात परम्परा से सुनते सुनाते लिखते लिखाते और पढ़ते.पढ़ाते आज
पर्यन्त हम लोग चले आते हैं। यही व्यवस्था सृष्टि और वेदों की वर्षों की ठीक है, और सब मनुष्यों को इसी को ग्रहण करना
योग्य है। क्योंकि आर्य लोग नित्यप्रति ओं तत् सत् परमेश्वर के इन तीन नामों का
प्रथम उच्चारण करके कार्यों का आरम्भ और परमेश्वर का ही नित्य धन्यवाद करते चले
आते हैं कि आनन्द में आज पर्यन्त परमेश्वर की सृष्टि और हम लोग बने हुए हैं और
बहीखाते की नाई लिखते.लिखाते,
पढ़ते.पढ़ाते चले आये हैं पूर्वोक्त ब्राह्म दिन के दूसरे प्रहर के ऊपर मध्यान्ह
के निकट दिन आया है और जितने वर्ष वैवस्वत मनु के भोग होने को बाकी हैं उतने ही मध्यान्ह में बाकी रहे हैं, यह वैवस्वतमनु का वर्तमान है, इसके भोग में यह 28
यानी अटठाइसवां कलियुग है। कलियुग के प्रथम चरण का भोग हो रहा है तथा वर्ष,ऋतु,अयन,मास,पक्ष,दिन,नक्षत्र, मुहूर्त, लग्न और पल आदि समय में हमने फलाना
काम किया था और करते हैं अर्थात जैसे विक्रम के संवत 1933 फाल्गुन मास
कृष्ण,पक्ष,षष्ठी,शनिवार के दिन चतुर्थ प्रहर के आरम्भ में यह बात हमने लिखी है, इसी प्रकार से सब व्यवहार आर्य लोग
बालक से वृद्ध पर्यन्त करते और जानते चले आये हैं। जैसे बहीखाते में मिती डालते
हैं वैसे ही महीना और वर्ष बढ़ाते घटाते चले जाते हैं। इसी प्रकार आर्य लोग तिथि
पत्र में भी वर्ष,
मास और दिन आदि लिखते चले आते हैं और यही इतिहास आज पर्यन्त सब आर्यावर्त देश में
ऐसा वर्तमान हो रहा है और सब पुस्तकों में भी इस विषय में एक ही प्रकार का लेख
पाया जाता है। किसी प्रकार का इस विषय में विरोध नहीं है। इसीलिये इसको अन्यथा
करने में किसी का सामर्थ्य नहीं हो सकता। क्योंकि जो सृष्टि की उत्पत्ति से लेके बराबर
मितीवार लिखते न आते तो इस गिनती का हिसाब ठोक.ठीक आर्य लोगों को भी जानना कठिन
होता, अन्य मनुष्यों
का तो क्या ही कहना है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सृष्टि के आरम्भ से लेके आज
पर्यन्त आर्य लोग ही बड़े.बड़े विद्वान और सभ्य होते चले आये हैं। जब जैन और
मुसलमान आदि लोग इस देश के इतिहास और विद्यापुस्तकों को बिगाड़ने लगे तब आर्य
लोगों ने सृष्टि के गणित का इतिहास कण्ठस्थ कर लिया, और जो पुस्तक ज्योतिषशास्त्र के बच गई हैं उनमें और उनके अनुसार जो
वार्षिक पञ्चांग पत्र बनते जाते हैं इनमें भी मिती से मिती बराबर लिखी चली आती है, इसको अन्यथा कोई नहीं कर सकता। यह
वृत्तान्त इतिहास इसलिये है कि पूर्वापर काल का प्रमाण यथावत् सब को विदित रहे और
सृष्टि की उत्पत्ति,
प्रलय तथा वेदों की उत्पत्ति के वर्षों की गिनती में किसी प्रकार का भ्रम किसी को
न हो, सो यह बड़ा
उत्तम काम है। इसको सब लोग जान लेवें। परन्तु इस उत्तम व्यवहार को लोगों ने
रुपया.पैसा कमाने के लिए बिगाड़ रखा है, यह शोक की बात है। और रुपये.पैसे के लोभ ने भी जो इस पुस्तक व्यवहार
को बना रखा है,
नष्ट न होने दिया, यह
बड़े हर्ष की बात है।
ओ३म् ।।
ग्रंथों की सूक्तियां
-किए
गए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। किया कर्म बिना भोगे,करोड़ों वर्षों तक भी मिटता नहीं है।
- इस
संसार में दिन प्रतिदिन प्राण मृत्यु को प्राप्त होते हैं किन्तु अभी जीवित हैं वे तो स्थाई रूप से जीने की लालसा पाले हुए हैं, इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा?
-मन,वचन,शरीर और कर्म के द्वारा पराये पदार्थों को हथियाने की इच्छा न होना ही अस्तेय है।
--विद्वान मनुष्य अपनी ओर आकर्षित करने वाले विषयों में विचरने वाली इंद्रियों के नियंत्रण में उसी प्रकार प्रयत्न करें, जिस प्रकार सारथी घोड़ों को नियंत्रण में करने के य यत्न करता है।
-धर्म
ही एकमात्र सच्चा मित्र है, जो
मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य के साथ जाता है। अन्य सब कुछ शरीर के साथ ही नष्ट हो
जाता है।
-
क्षमाशील मनुष्यों में एक को छोड़कर अन्य कोई दोष नहीं माना जाता है और वह एक दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्य को लोग निर्बल समझते हैं।
--इस कर्म के करने से मुझे क्या फल मिलेगा और न करने से क्या फल मिलेगा, इस प्रकार अच्छी प्रकार विचार करके ही मनुष्य उस कर्म को करे अथवा न करें।
-कौन
जानता है कि आज किसकी मृत्यु का समय उपस्थित होगा। अत- मनुष्य युवावस्था
से धार्मिक बने क्योंकि यह जीवन निश्चय ही अनित्य है।
--यह धन.सम्पत्ति चञ्चल है और प्राण जीवन तथा यौवन भी चञ्चल हैं। इस चल तथा अचल वस्तुओं वाले संसार में एक धर्म ही निश्चल है।
-दुखों
से जिसका मन खिन्न नहीं होता,
सुखों में जिसकी लालसा नहीं रहती और जिसमें राग, भय,
क्रोध नहीं है, वह
मननशील व्यक्ति स्थिर बुद्धिवाला कहलाता है।
- धैर्य, क्षमा,सहनशीलता, दम यानी मन को वश में रखना, अस्तेय, शौच यानी पवित्रता, इन्द्रियों को वश में रखना,बुद्धि का विकास, विद्याए सत्य और क्रोध न करना ये दश धर्म लक्षण हैं।
-धर्म,अर्थ,काम ओर मोक्ष इन चारों का निरोगता यानी स्वास्थ्य ही मुख्य आधार है। उस स्वास्थ्य के अपहरणकर्ता रोग हैं। ये रोग मनुष्य के कल्याण और जीवन के भी अपहर्ता हैं।
--शरीर की वृद्धि, चमक यानी तेज, सब
अंगों की सुडौलता,
जठराग्नि की तीव्रता,
आलस्य का अभाव,
स्थिरता,हल्कापन, निर्मलता, परिश्रम.थकावट.प्यास.गर्मी.सर्दी इनको
सहने की शक्ति और उत्तम स्वास्थ्य ये लाभ व्यायाम से उत्पन्न होते हैं।
--मोटापे
को घटाने के लिए व्यायाम जैसा अन्य कोई उपाय नहीं है। और व्यायाम के अभ्यासी मनुष्य को जबर्दस्ती पीड़ित नहीं कर सकते।
-- बुद्धिमान मनुष्य मूत्र और मल त्याग के वेग को न रोके तथा शुक्र,अपानवायु वमन, छींक,डकार,जंभई, भूख,प्यास,नींद और परिश्रम से उत्पन्न तीव्र श्वास.प्रश्वास इनके वेगों को भी न रोके।
--इस
संसार में ज्ञान के समान अन्य कोई वस्तु पवित्र नहीं है। योग.सिद्धि को प्राप्त
मनुष्य उस ज्ञान को चिरकाल की साधना के पश्चात स्वयं प्राप्त कर लेता है।
----कामना
कभी कामनाओं के उपभोग से शान्त नहीं होती अपितु बढ़ती है। जैसे कि घृत आदि हावि के द्वारा अग्नि शान्त नहीं होती अपितु और अधिक बढ़ती
ही है।
---सत्य से बढ़कर कोई अन्य श्रेष्ठ धर्म नहीं है ओर झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। सत्य ही धर्म का आधार है। अतः सत्य का लोप न करें।
---परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाया है, अत- इन्द्रियाधीन जीवात्मा बाहर की ओर ही प्रवृत्त होता है, अन्तरात्मा की ओर नहीं। कोई विरला ही धीर पुरुष मुक्ति की कामना करता हुआ चक्षु आदि इन्द्रियों को रोक कर अपनी अन्तरात्मा की ओर अभिमुख होता है।
---मृत्यु होने पर बन्धु.बान्धव मृतक के शरीर को काठ अथवा पाषाण के समान श्मशान भूमि में त्याग कर मुख फेरकर अपने घर चले जाते हैं, केवल धर्म ही उस मृतक की आत्मा का अनुगमन करता है।
---जिसकी स्वयं बुद्धि नहीं है, उसका शास्त्र कोई उपकार नहीं कर सकता। जैसे कि नेत्रों से विहीन व्यक्ति का दर्पण क्या उपकार कर सकेगा।
----श्रेष्ठ मनुष्य जिस कर्म को करता है,वही कर्म सामान्य मनुष्य भी करते हैं। अतः लोक के कल्याण के लिए और आत्म.सिद्धि के लिए शुभ कर्म अवश्य करना चाहिए।
----जिसके शरीर में वात, पित्त और कफ ये तीनो दोष सम मात्रा में रहते हैं, जिसकी जठराग्नि सम रहती है, जिसकी रक्त मांस आदि धातुएं उचित परिमाण में अवस्थित है, जिसके शरीर में मल निष्कासन की क्रियाएं सम है, जो सदा प्रसन आत्मा और मन से युक्त है वह स्वस्थ कहलाता है।
---यह
आत्मा सत्य,तप,सम्यक ज्ञान और सतत् ब्रह्मचर्य से प्राप्त
किया जा सकता है। यह आत्मा शरीर के अन्दर ज्योर्तिमय तथा विशुद्ध रूप में स्थित
है। जिसे सर्व दोषों से रहित संन्यासी अथवा संयमी लोग ही
साक्षात् करते हैं।
---मनुष्य
सत्य बोले और प्रिय बोले ऐसा सत्य न बोले जो अप्रिय हो और ऐसा प्रिय वचन न बोले जो असत्य हो। यही सदा से चला आ रहा धर्म है।
--सभी प्रकार को शुद्धियों में धन संबंधी शुद्धि सबसे मुख्य है। जो मनुष्य धन के विषयों में शुद्ध है,वहीं शुद्ध है। मिट्टी और जल से शुद्ध हुआ, यथार्थ में शुद्ध नहीं है।
----जैसे दूध में घृत व्यापक होता है। उसी प्रकार परमात्मा को जगत में व्यापक समझना चाहिए। उसकी प्राप्ति आत्म.विद्या और तपस्या से सुलभ है। वह ईश्वर महान सर्वान्तर्यामी और सर्वोत्कृष्ट है।
---शौच
यानी शोधन दो प्रकार का कहा गया है। बाहर का और भीतर का। मिट्टी और जल से बाहर की
शुद्धि होती है जबकि भावों को शुद्ध रखना अन्दर की शुद्धि है।
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मनुष्य जितेन्द्रिय बने और विषम भोजन से उत्पन्न होने वाले रोगों और उनसे प्राप्त कष्टों का विचार करके सदा निर्धारित समय पर हितकारक और मात्रा में
भोजन करने का अभ्यासी बने।
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शरीर को धारण करने वाले तीन उपस्तम्भ हैं.भोजन, निद्रा और ब्रह्मचर्य। श्रद्धा से ही धर्म सिद्ध किया जाता है, बड़ी बड़ी धन सम्पत्तियों से नहीं। अत- सर्वथा धन रहित होते हुए भी अनेक
श्रद्धालु मुनिगण मोक्ष को प्राप्त हो गए।
---जो मनुष्य सुनकर, स्पर्श करके, देखकर, खाकर और सूंघ कर न तो प्रसन्न होता है और न ही अप्रसन्न होता है उसे ही जितेन्द्रिय जानना चाहिये।
कृतिः.मानव कल्याण निधि
लेखकः- .प0 महेंद्र कुमार
आर्य, पूर्व प्रधान. आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर
नोएडा, जिलाः. गौतमबुद्धनगर हैं।