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"हवन और वैज्ञानिक शंङ्का"

 


आचार्य करणसिह नोएडा

          "हवन और वैज्ञानिक शंङ्का"

  यूरोपीय साइंस की नकल करके उस को बदनाम करने वाले कुछ देशी विद्वान कहा करते हैं कि हवन से कार्बन, अर्थात् ऐसी वायु उत्पन्न होती है जो मनुष्य के लिए हानिकारक है। हम कहते हैं कि यज्ञों के जितने गुण हैं उन को देखते हुए हवन के ढेर से उत्पन्न होने वाली हानियां कुछ मूल्य नहीं रखती, विशेषकर ऐसे समय में जब रेल के इंजन, मिलों की चिमनिया और सिगरेट के धुए रात-दिन लोगों के स्वास्थ्य को नष्ट  कर रहे हैं। परंतु फिर भी लोग कहते हैं कि हवन से हवा बिगड़ती है। इसीलिए हम उचित समझते हैं कि यहां पर कुछ दिखलाने का यत्न करें कि कभी-कभी धुआं भी लाभदायक होता हैऔर बिना धुए के वायु हानिकारक होती है। धुए के लाभ दिखाते हुए फ्रांस के विज्ञान वेता अध्यापक कहते हैं कि जलती हुई शक्कर में वायु शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति है। उन्होंने इसके प्रयोग भी दिखलाएं हैं।वे कहते हैं कि इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि बीमारियां तुरंत नष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार डॉ एम ट्रेल्ट ने मुनक्का किसमिस आदि फलों को (जिनमें शक्कर अधिक होती है )जलाकर देखा उनको ज्ञात हुआ कि इनके धुएं  से टाइफाइड के रोग कीट 30 मिनट में और दूसरे रोगों के कीट घंटे-दो घंटे में नष्ट हो जाते हैं।

   मेड्रास के सेनेटरी कर्नल किंग आई एम एस ने कॉलेज के विद्यार्थियों को कहा है कि घी और चावल में केसर मिलाकर जलाने से रोगों का नाश हो जाता है।

      फ्रांस का  डॉ हैफकिन कहता है कि घी के जलाने से रोगकीट जाते हैं।


         इन प्रमाणों से पाया जाता है कि विचार पूर्वक किए हुए रोग नाशक पदार्थों के धुए से लाभ ही होता है। परंतु यह न समझना चाहिए कि वायु से केवल कार्बन निकाल डालने पर ही उसकी शुद्धि होती है। वायु में कार्बन के भी बहुत से मारने वाले तत्व उपस्थित हो जाते हैं। डॉ जे लैंन नाटर, एम ए, एमडीआर एच, एफ आर सी एस, ने हाइजिन नामी पुस्तक में लिखा है। कि जिन कोठियों में बहुत से आदमी हो और खिड़कियां खुली न हो वहां का वायु दोष युक्त होता है। वहां कार्बनिक एसिड अधिक परिमाण में होता है।

      वहां पर सिर घूमने लगता है और मूर्छा भी हो जाती है।परंतु इसका कारण गर्मी या कार्बन डाइऑक्साइड की छुट्टी ही नहीं है। वायु के अंदर ऑक्सीजन का कम हो जाना है। क्योंकि मनुष्य अथवा पशुओं  के द्वारा जो मलिन पदार्थ उनके श्वास और त्वचा से निकलते हैं। वह वायु मे भर जाते हैं। और विष का काम करते हैं। इसका परीक्षण किस प्रकार किया गया है।  हवा से कार्बन डाइऑक्साइड निकाल लिया गया और मनुष्यों की  श्वास से उत्पन्न हुआ वायु को रहने दिया गया। उस वायु में जब चूहा रखा गया। वह 45 मिनट में मर गया। इससे  सिद्ध हुआ है कि हवा कार्बन डाइऑक्साइड से भी अधिक जरूरी होती है।कहने का तात्पर्य यह है कि हवा केवल कार्बन ही निकाल देने से हो शुद्ध नहीं हो सकती। उसमें से दूषित मलिनता निकालने की आवश्यकता है। हवन में यह गुण है कि वह दूषित मलिलता को जला देता है। थोड़ा सा कार्बन रहने देता है, क्योंकि हवन से निकला हुआ कार्बन वृक्षों का भोजन है, जहां वायु शुद्ध होती है। वहां हवन से वृक्षो को भी भोजन मिलता है। हवन सघन वृक्षा वली जगह में होता है। तब वहां की वायु शुद्ध हो जाती है, और वन वृक्षो को भोजन मिल जाता है। इस प्रकार हवन सार्थक हो जाता है, और उसमें कार्बन फैलाने का दोष नहीं रहता। क्योंकि पिछले प्रश्नों में बताया है कि जब की सामग्री ही दूध आदि पशुओं  से जंगलों से प्राप्त होती है पशु भी जंगल में चरते हैं। इसीलिए यज्ञ का सब कार्य  जंगल से चलता है। यज्ञ का ही काम नहीं चलता प्रत्येक प्राणी मात्र का जीवन भी जंगल पर आधारित और अबलंबित है।इसीलिए यज्ञ  के मुख्य उद्देश में वनस्पति को लाभ पहुंचाना है।  वनस्पति को पानी और कार्बन वायु की आवश्यकता होती है। वृक्ष कारबन को खातेहै और वृष्टि  के जल को पीतेहम देखते हैं कि यज्ञ अपने धूम से कार्बन वायुऔर वृष्टि की रचना एक ही साथ करते हैं और यह दोनों वृक्षों के खाने-पीने के काम में आते हैं।

     विज्ञान ने अब यह बात सिद्ध कर दी है कि वायु में जो डस्ट धूल उड़ा करती है, वही ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाकर पानी बनाने के लिए जामुन का काम करते हैं। सभी को मालूम है कि यह दोनों का उद्देश्य पानी बरसाना भी है। अतः हवा का कार्बनिक गैस जो वृक्षो के खाने से बच जाता है और डस्ट के रूप में रह जाता है। उसे बरसात का पानी नीचे खींच लाता है, और वह भी वृक्षों के लिए खाद बन जाता है। इस प्रकार कार्बन पानी बरसाने और वृक्षों का भोजन बनाने मे सहायता करता है। परंतु वे कार्बन युक्त होते हैं, हमारा सिद्धांत है, कि यज्ञ जंगल मे होना चाहिए। वायु को खाता है और तुरंत ही दे देता है, क्योंकि यह भी सिद्धांत है वृक्ष कार्बन को खाते अर्थात प्राण प्रदवायु देते हैं। इस प्रकार वैदिक यज्ञ  देश में वैदिक यज्ञों द्वारा उत्पन्न उसी प्रकार लाभदायक हो जाती है।  जिस प्रकार स्वास-प्रस्वास हमारे प्राण वायु लेते हैं और इसीलिए यज्ञ पर कार्बन फैलाने का अभियोग नहीं लग सकता है। पूर्वोक्त समस्त प्रकरण के द्वारा यहां कई कारणों का वर्णन करके देखा तो ज्ञात हुआ कि वे हर प्रकार से भी विज्ञानयुक्त और आदि ज्ञान के अनुरूप है।

(वैदिक सम्पत्ति से संगृहीत)