चौधरी शौकत अली चेची
त्योहारों की परंपराएं केवल सांस्कृतिक नहीं होतीं, वे इतिहास, आस्था और इंसानियत की जड़ों से जुड़ी होती हैं। बलिदान, त्याग, भाईचारा और मानव कल्याण का संदेश देने वाले ये पर्व समाज को जोड़ने और मार्गदर्शन देने का कार्य करते हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख त्योहार है — ईद-उल-अजहा।
ईद-उल-अजहा (बकरीद) इस्लाम धर्म के दो बड़े त्योहारों में से एक है, जिसे इस वर्ष 7 जून 2025 (हिजरी 1446) को पूरे देश में मनाया जा रहा है। इसे रमज़ान के बाद आने वाले जिल-हिज्जा महीने की 10 तारीख को मनाया जाता है, जो इस्लामी कैलेंडर का अंतिम महीना है। यह त्योहार पैगंबर हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की उस महान कुर्बानी की याद में मनाया जाता है, जब उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर अपने इकलौते बेटे हजरत इस्माइल अलैहिस्सलाम को कुर्बान करने का संकल्प लिया था।
ईद-उल-अजहा का आध्यात्मिक संदेश
यह त्योहार हमें सिखाता है कि अल्लाह की राह में पूर्ण समर्पण, त्याग की भावना और निस्वार्थ प्रेम क्या होता है। कुर्बानी केवल जानवर की नहीं, बल्कि अपने अहंकार, नफरत और स्वार्थ की भी होनी चाहिए। यह पर्व गरीबों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ खुशियां बाँटने का प्रतीक है।
इस दिन सुबह मस्जिदों और ईदगाहों में विशेष ईद की नमाज़ अदा की जाती है और शांति, एकता और तरक्की की दुआ की जाती है। महिलाएं घरों में नमाज़ अदा करती हैं। नमाज़ के बाद कुर्बानी की प्रक्रिया होती है, जिसमें जानवर को शरीयत के मुताबिक तीन हिस्सों में बाँटा जाता है—एक हिस्सा गरीबों को, दूसरा रिश्तेदारों व दोस्तों को और तीसरा हिस्सा स्वयं के लिए होता है।
कुर्बानी का महत्व और प्रक्रिया
इस्लाम धर्म में कुर्बानी एक आध्यात्मिक परंपरा है, न कि केवल एक धार्मिक क्रिया। कुर्बानी के लिए चुना गया जानवर—बकरा, दुंबा, भैंसा या ऊंट—स्वस्थ, पालन-पोषण से तैयार और दोषरहित होना चाहिए। प्रतिबंधित जानवरों की कुर्बानी इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार अनुचित है।
इस विषय पर समाज में भिन्न मत हैं, किंतु यह समझना ज़रूरी है कि हर दिन लाखों जानवर मांसाहार, व्यापार और प्राकृतिक शृंखला के तहत मारे जाते हैं। जंगल के जीव—शेर, लकड़बग्घा, भेड़िया आदि भी जीवित रहने के लिए मांस का सेवन करते हैं। इतिहास में भी आदिकाल में मनुष्य कच्चा मांस खाकर ही जीवित रहता था, जब उसे अग्नि का ज्ञान नहीं था। ऐसे में कुर्बानी पर एकतरफा दृष्टिकोण रखना न्यायसंगत नहीं है।
पैगंबर इब्राहीम और इस्माइल की कुर्बानी की कथा
हजरत इब्राहीम, जो लगभग 80 वर्ष की आयु में पिता बने, को अपने बेटे इस्माइल से अत्यधिक प्रेम था। जब अल्लाह ने उन्हें सपने में सबसे प्रिय वस्तु की कुर्बानी देने का आदेश दिया, तो उन्होंने उस प्रेम की सबसे कठिन परीक्षा दी। उन्होंने बेटे को यह बात बताई, और इस्माइल तथा उनकी मां हजरत हाजरा दोनों ने अल्लाह की राह में कुर्बान होने की रज़ामंदी दे दी।
इब्राहीम ने आंखों पर पट्टी बांधी और छुरी चलाने ही वाले थे कि अल्लाह के हुक्म से जिब्राईल फरिश्ते ने एक दुंबा भेजा, जिसे इस्माइल की जगह कुर्बान कर दिया गया। यह घटना इस बात का प्रतीक बनी कि ईमान और समर्पण की पराकाष्ठा क्या होती है।
कुर्बानी का इतिहास और अन्य धर्मों से साम्य
अगर गहराई से देखा जाए तो बलिदान और त्याग की परंपराएं हर धर्म में मौजूद हैं। उदाहरण के तौर पर राजा मोरध्वज की कथा में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है, जिसमें उन्होंने अपने बेटे ताम्रध्वज को भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन की आज्ञा पर त्याग करने का निर्णय लिया था। यह कथा इस बात को प्रमाणित करती है कि त्याग और सेवा की भावना सार्वभौमिक है।
आपसी सौहार्द और मानवता का संदेश
ईद-उल-अजहा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि इंसानियत, भाईचारे और करुणा का प्रतीक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि धर्म, जाति या मजहब से ऊपर उठकर हमें हर जरूरतमंद की मदद करनी चाहिए, रिश्तों को मजबूत बनाना चाहिए और समाज में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करना चाहिए।
इस पर्व के अवसर पर हम सभी यह संकल्प लें कि हम मानवता के मार्ग पर, त्याग और सेवा की भावना के साथ चलें और समाज में आपसी सौहार्द, प्रेम और एकता को बढ़ावा दें।
लेखक: चौधरी शौकत अली चेची, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, किसान एकता संघ एवं पिछड़ा वर्ग सचिव, समाजवादी पार्टी, उत्तर प्रदेश हैं।