गलगोटियास विश्वविद्यालय में 'प्रजनन न्याय एवं दिव्यांगता' पर कार्यशाला आयोजित
मौहम्मद इल्यास- "दनकौरी" / यीडा सिटी
गलगोटियास विश्वविद्यालय के लॉ डिपार्टमेंट के अंतर्गत कार्यरत डिसएबिलिटी राइट्स क्लिनिक ने एक अत्यंत प्रासंगिक और संवेदनशील विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया — “प्रजनन संबंधी न्याय एवं विकलांगता अधिकार: दिव्यांगता भेदभाव का मिथक।”
कार्यशाला का उद्देश्य दिव्यांगजनों के यौन और प्रजनन अधिकारों पर गहराई से चर्चा करना और इस संवेदनशील मुद्दे पर समाज, नीति-निर्माताओं व शैक्षणिक संस्थानों की सोच को चुनौती देना था।
"पुराने कानूनों में नई सोच की ज़रूरत" – प्रो. अवंतिका तिवारी
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए लॉ डिपार्टमेंट की प्रो. अवंतिका तिवारी ने स्वागत भाषण में कहा कि भारत में दिव्यांगता संबंधी कानून आज भी कई स्तरों पर पुरानी सोच का अनुसरण कर रहे हैं। उन्होंने जोर दिया कि परिवार नियोजन, शारीरिक स्वायत्तता और प्रजनन जैसे विषयों को लेकर कानूनों में गहराई और संवेदनशीलता का समावेश आवश्यक है।
उन्होंने इस बात पर गर्व जताया कि डिसएबिलिटी राइट्स क्लिनिक जैसे उपक्रम, विधि संस्थानों में एक मिसाल कायम कर रहे हैं और दिव्यांगजनों के अधिकारों के लिए प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहे हैं।
"दिव्यांगता यौनिकता का निषेध नहीं" – हेमा कुमारी
विशेष वक्ता हेमा कुमारी ने अपने व्याख्यान में कहा कि समाज अब भी दिव्यांग महिलाओं की यौनिकता को या तो नकारता है या उपेक्षित करता है। उन्होंने कहा कि, “हमारे समाज में दिव्यांगजनों के लिए समुचित सेक्स एजुकेशन और काउंसलिंग की बेहद कमी है, जो उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालती है।”
उन्होंने आग्रह किया कि शैक्षणिक संस्थान, परिवार और नीतिनिर्माता इस मुद्दे पर ज्यादा संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाएं।
"दिव्यांगजनों को भी मिले प्रजनन संबंधी न्याय" – डॉ. तालीम अख्तर
राजनीति विज्ञान की विदुषी डॉ. तालीम अख्तर ने अपने सत्र की शुरुआत अपने व्यक्तिगत अनुभवों से की। दृष्टिहीनता के बावजूद उन्होंने शिक्षा और विचार की नई ऊँचाइयाँ छुईं। उन्होंने आरपीडब्लूडी अधिनियम 2016 की सीमाओं को इंगित करते हुए कहा कि यह अधिनियम दिव्यांगों के प्रजनन अधिकारों को सीमित नजरिए से देखता है।
डॉ. अख्तर ने भारतीय न्यायपालिका के एक ऐतिहासिक निर्णय का उल्लेख किया जिसमें एक दिव्यांग महिला के गर्भपात को उसकी सहमति के बिना अवैध ठहराया गया था। उन्होंने इस निर्णय को “मानव अधिकार और न्याय की दिशा में बड़ा कदम” बताया।
कानून, इतिहास और मानवता – सलमान ख़ान का दृष्टिकोण
कार्यशाला में सलमान ख़ान ने कानूनी इतिहास का विश्लेषण करते हुए अमेरिका के Buck v. Bell (1927) जैसे फैसलों पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि किस प्रकार एक दिव्यांग महिला की जबरन नसबंदी को वहाँ की अदालत ने वैध ठहराया था। उन्होंने चेताया कि भारत में आज भी कानूनों की अस्पष्टता के कारण ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं, भले ही वे खुले तौर पर कानूनी रूप से मान्य न हों।
अवधारणा से आंदोलन की ओर
कार्यशाला का समापन डिसएबिलिटी राइट्स क्लिनिक की इस प्रतिज्ञा के साथ हुआ कि वे भविष्य में भी इस तरह के विमर्श को राष्ट्रीय और वैश्विक मंचों तक पहुँचाने का प्रयास करते रहेंगे, ताकि दिव्यांग व्यक्तियों को भी यौनिकता, प्रजनन और आत्मनिर्णय के अधिकार समान रूप से प्राप्त हो सकें।