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एक अरब छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार नौ सौ छिहत्तर वर्ष इस सृष्टि की तथा वेदों की उत्पत्ति में भी व्यतीत हुए

 वेदों की उत्पत्ति और सृष्टि काल



महेंद्र कुमार आर्य

वेद को ही विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ या पुस्तक माना गया है इस पर कई बार शोध भी हो चुका है और सभी शोधों के एक परिणाम सामने आया है कि वेद सबसे प्राचीन ग्रंथ है। जबकि आर्य लोग तो मानते हैं कि वेद ईश्वरीय वाणी है या ईश्वरीय ज्ञान है।

ईश्वर ने ऋषियों.मुनियों को ज्ञान के माध्यम से वेद का ज्ञान दिया है। इसके बाद भी अनेक सवाल उठते हैं। चर्चाओं और शास्त्रार्थों में अनार्य लोग वेदों की उत्पत्ति और उसकी अवधि के बारे में सवाल उठाते रहते हैं और  मनगढंत प्रचार करते रहते हैं।

एतावता कथनेनैवाध्यापकैर्विलसनमोक्षमूराद्यभिधै

यूरोपाख्यखण्डस्थैर्मनुष्यरचितो वेदोऽस्ति श्रुतिर्नास्तीति

यदुक्तं, यच्चोक्तं चतुर्विशं तिरेकोनत्रिंशक्त्रिंशदेककत्रिंशच्य


शतानि वर्षाणि वेदोत्पत्तो व्यतीतानीति तत्सर्वं

भ्रममूलमस्तीति वेद्यम्।

तथैव प्राकृतभाषया व्याख्यानकारिभिरय्येवमुक्तं तदापि भ्रान्तमेवास्तीति च।।

वेदों की उत्पत्ति में कितने वर्ष हो गए हैं, इस सवाल के जवाब में आया है कि एक वृन्द छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार, नौ सौ छिहत्तर अर्थात 1968053122 वर्ष वेदों की और जगत की उत्पत्ति में हो गए हैं यह संवत् 77 सतहत्तर मां व्रत रहा है। यह कैसे निश्चय हो कि इतने ही वर्ष और वेद और जगत की उत्पत्ति में बीत गए हैं, इस सवाल पर विचार करने के बाद यह जवाब आया कि यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छह मन्वन्तर हो चुके हैं। ये मन्वन्तर हैं-. 1-स्वायम्भव, 2-  स्वारोचिष, 3- औत्तमि, 4- तामस, 5-  रेवत, 6- चाक्षुष ये छह मन्वन्तर तो बीत चुके हैं और सातवां वैवस्वत वर्त रहा है। सावर्णि आदि सात मन्वन्तर आगे भोगेंगे। ये सब मिलके 14 मन्वन्तर होते हैं। और एकहत्तर चतुयुर्गियों का नाम मन्वन्तर धरा गया है सो उसकी गणना इस प्रकार से है कि 17,28,000 यानी सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्षों का नाम सतयुग रखा है। 12,96000 यानी बारह लाख छानवे हजार वषों का नाम त्रेता 8,64000 अर्थात आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का नाम द्वापर और 4,32,000 अर्थात चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का नाम कलियुग रखा गया है। आर्यों ने एक क्षण और निमेष से लेके एक वर्ष पर्यन्त भी काल की सूक्ष्म और स्थूल संज्ञा बांधी है। इन चारों युगों के 43,20,000 तितालिस लाख बीस हजार वर्ष होते हैं। जिनका चतुर्युगी नाम है। एकहत्तर चतुर्युगियों के अर्थात 30,67,20,000 तीस करोड़, सरसठ लाख और बीस हजार वर्षों की एक मन्वन्तर संज्ञा को है और ऐसे छह मन्वन्तर मिलकर 1,84,03,20,000 एक अरब,चौरासी करोड़, तीन लाख और बीस हजार वर्ष हुए और सातवें मन्वन्तर के भोग में यह अट्ठाइसर्वीं चतुर्युगी है। इस चतुर्युगी में कलियुग के 4,976 चार हजार नौ सौ छिहत्तर वर्षों का तो भोग हो चुका है और बाकी 4,27,024 चार लाख सत्ताइस हजार चौबीस वर्षों का भोग होने बाला है। जानना चाहिए कि 12,05,32, 976 बारह करोड़, पांच लाख बतौस हजार, नौ सौ छिहत्तर वर्ष तो वैवस्वत मनु के भोग हो चुके हैं और 18,61,87,024 अठारह करोड़, एकसठ लाख, सत्तासी हजार चौबीस वर्ष भोगने के बाकी रह गए हैं। इनमें से यह वर्तमान 77 सतहत्तरवां है, जिसको आर्य लोग विक्रम का 1933 उन्नीस सौ तैंतौसवां संवत् कहते हैं। जो पूर्व चतुर्युगी लिख आए हैं, उन एक हजार चतुयुर्गियों की ब्राम्हदिन संज्ञा रखी है और उतनी ही चतु्युर्गियों की रात्रि संज्ञा जानना चाहिए। सो सृष्टि को उत्पत्ति करके हजार चतुर्युगी पर्यन्त ईश्वर इस को बना रखता है। इसी का नाम ब्राम्हदिन दिन रखा है। और हजार चतुर्युगी पर्यन्त सृष्टि को मिटा के प्रलय अर्थात कारण में लीन रखता है। उसका नाम ब्राम्हरात्रि रखा है अर्थात सृष्टि के वर्तमान होने का नाम दिन और प्रलय का नाम रात्रि है। यह जो वर्तमान ब्राह्मदिन है इसके 1,96,08,52,976 एक अरब छानवे करोड़, आठ लाख, बावन हजार नौ सौ छिहत्तर वर्ष इस सृष्टि की तथा वेदों की उत्पत्ति में भी व्यतीत हुए हैं और 2,33,32,27,024 दो अरब तैंतीस करोड़, बतीस लाख, सत्ताइस हजार चौबीस वर्ष इस सृष्टि को भोग करने के बाकी रहे हैं। इनमें से अन्त का यह चौबीसवां वर्ष भोग रहा है। आगे आनेवाले भोग के वर्षों में से एक एक घटाते जाना और गत वर्षों में क्रम से एक एक वर्ष मिलाते जाना चाहिये जैसे आज पर्यन्त घटाते बढ़ाते आएं हैं। ब्राम्ह दिन और बराम्हरात्रि अर्थात् ब्रह्म जो परमेश्वर उसने संसार के वर्तमान और प्रलय की संज्ञा की है, इसीलिये इसका नाम ब्राह्मदिन है। इसकी प्रकरण में मनु स्मृति के श्लोक साक्षी के लिये लिख चुके हैं वह देखे जा सकते हैं इन श्लोकों में दैव वर्षों की गणना की है, अर्थात चारों युगों के बारह हजार यानी 12000 वर्षो की देवयुग संज्ञा की है। इसी प्रकार असंख्या मन्वन्तरों में जिनकी संख्या नहीं हो सकती अनेक बार सृष्टि हो चुकी है और अनेक बार होगी। सो इस सृष्टि को सदा से सर्व शक्तिमान् जगदीश्वर सहज स्वभाव से रचता,पालन और प्रलय करता है और सदा ऐसे ही करेगा। क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति वर्तमान,प्रलय और वेदों की उत्पत्ति के वर्षों को मनुष्य लोग सुख से गिन लें, इसीलिये यह ब्राह्म दिन आदि संज्ञा बांधी है। और सृष्टि का स्वभाव नया पुराना प्रति मन्वन्तर में बदलता जाता है, इसीलिये मन्वन्तर संज्ञा बांधी वर्तमान सृष्टि की कल्प संज्ञा और विकल्प संज्ञा की है। सब संसार की सहस्र संज्ञा है तथा पूर्वोक्त ब्राह्म दिन और रात्रि की सहस्रसंज्ञा ली जाती है क्योंकि यह मन्त्र सामान्य अर्थ में वर्तमान है। सो हे परमेश्वर ! आप इस हजार चतुर्युगी का दिन और रात्रि को प्रमाण आदि निर्माण करने वाले हो। इसी


प्रकार ज्योतिषशास्त्र में यथावत् वर्षों की संख्या आर्य लोगों ने गिनी है सो सृष्टि की उत्पत्ति से लेके आज पर्यन्त दिन दिन गिनते और क्षण से लेके कल्पान्त की गणित विद्या को प्रसिद्ध करते चले आते हैं, अर्थात परम्परा से सुनते सुनाते लिखते लिखाते और पढ़ते.पढ़ाते आज पर्यन्त हम लोग चले आते हैं। यही व्यवस्था सृष्टि और वेदों की वर्षों की ठीक है, और सब मनुष्यों को इसी को ग्रहण करना योग्य है। क्योंकि आर्य लोग नित्यप्रति ओं तत् सत् परमेश्वर के इन तीन नामों का प्रथम उच्चारण करके कार्यों का आरम्भ और परमेश्वर का ही नित्य धन्यवाद करते चले आते हैं कि आनन्द में आज पर्यन्त परमेश्वर की सृष्टि और हम लोग बने हुए हैं और बहीखाते की नाई लिखते.लिखाते, पढ़ते.पढ़ाते चले आये हैं पूर्वोक्त ब्राह्म दिन के दूसरे प्रहर के ऊपर मध्यान्ह के निकट दिन आया है और जितने वर्ष वैवस्वत मनु के भोग होने को बाकी हैं उतने ही मध्यान्ह में बाकी रहे हैं, यह वैवस्वतमनु का वर्तमान है, इसके भोग में यह 28 यानी अटठाइसवां कलियुग है। कलियुग के प्रथम चरण का भोग हो रहा है तथा वर्ष,ऋतु,अयन,मास,पक्ष,दिन,नक्षत्र, मुहूर्त, लग्न और पल आदि समय में हमने फलाना काम किया था और करते हैं अर्थात जैसे विक्रम के संवत 1933 फाल्गुन मास कृष्ण,पक्ष,षष्ठी,शनिवार के दिन चतुर्थ प्रहर के आरम्भ में यह बात हमने लिखी है, इसी प्रकार से सब व्यवहार आर्य लोग बालक से वृद्ध पर्यन्त करते और जानते चले आये हैं। जैसे बहीखाते में मिती डालते हैं वैसे ही महीना और वर्ष बढ़ाते घटाते चले जाते हैं। इसी प्रकार आर्य लोग तिथि पत्र में भी वर्ष, मास और दिन आदि लिखते चले आते हैं और यही इतिहास आज पर्यन्त सब आर्यावर्त देश में ऐसा वर्तमान हो रहा है और सब पुस्तकों में भी इस विषय में एक ही प्रकार का लेख पाया जाता है। किसी प्रकार का इस विषय में विरोध नहीं है। इसीलिये इसको अन्यथा करने में किसी का सामर्थ्य नहीं हो सकता। क्योंकि जो सृष्टि की उत्पत्ति से लेके बराबर मितीवार लिखते न आते तो इस गिनती का हिसाब ठोक.ठीक आर्य लोगों को भी जानना कठिन होता, अन्य मनुष्यों का तो क्या ही कहना है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग ही बड़े.बड़े विद्वान और सभ्य होते चले आये हैं।

संकलनकर्ताः- .प0 महेंद्र कुमार आर्य, पूर्व प्रधान. आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर नोएडा, जिलाः. गौतमबुद्धनगर हैं।