पं0 महेंद्र कुमार आर्य
कर्मफल सिद्धान्त की आधारभूत
मान्यताएँ
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१. ईश्वर, जीव, प्रकृति ये तीन
सनातन सत्ताएँ एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं।
२. ईश्वर एक है, वह सच्चिदानन्द, सर्वव्यापक और
सर्वशक्तिमान् है। वहीं विश्व का एकमात्र कर्ता-धर्ता-हर्ता एवं जीवात्माओं के
कर्मों का साक्षी और फल देने वाला है।
३. जीवात्मा अनेक, सत्-चित्, अल्पज्ञ , अल्पशक्ति वाले
हैं। ज्ञान और प्रयत्न उनके स्वाभाविक गुण हैं। कर्मफल भुगतान हेतु ईश्वर द्वारा
लाखों योनियों का सृजन हुआ है। सभी जीवों को अपनी-अपनी योनियों के अनुसार ईश्वर
रचित पदार्थों का उपयोग करने का समान अधिकार है, परन्तु कर्म (अच्छे या बुरे) करने का
सामर्थ्य केवल मनुष्य योनि में ही है।
४. ईश्वर जड़ प्रकृति से विश्व की
रचना करता है। प्रकृति से बने सब पदार्थ जीवात्माओं के उपयोग के लिये है। प्रकृति
सत्त्व, रज, तम गुणवाली है,
अतः प्रकृति से बना प्रत्येक पदार्थ
इन गुणों वाला होता है। इसी कारण जीवात्मा योनियाँ भी न्यूनाधिक रूप से इन तीन
गुणों के स्वभाव वाली हो जाती हैं।
५. मनुष्य योनि को प्राप्त जीवात्माओं
के लिये ईश्वर ने सृष्टि के आदि में वेदों का ज्ञान दिया। इनके
अनुसार आचरण करने से मनुष्य सुखी रहता है।
६. जब अन्तःकरण की शुद्धि, भगवद् उपासना, परोपकार आदि सदाचरण
से त्रिविध ताप दूर हो जाते हैं तो जीवात्मा एक दीर्घकाल तक के लिये आवागमन आदि सब दुखों से छूटकर परमानन्द का उपयोग करता है।
७. "कर्मणो गहना गतिः
"यद्यपि कर्म सिद्धान्त को समझना कठिन है, क्योंकि कर्म की गति बड़ी गहन गम्भीर
है। फिर भी स्थूल रूप से समझने-समझाने का मन करते हैं मनुष्य अपने मन में या
कर्मेन्द्रियों से जो भी कर्म करता रहता है उससे अनुकूल (सुख) या प्रतिकूल (दुःख)
में दो प्रकार का फल उत्पन्न होता है। सुख से रागरूपी और दुःख से सना (संस्कार)
चित्त में बैठ जाता है, वह संस्कारित (टेप) हो जाता है। उस वासना से
वृत्ति (पुन: वही कार्य करने की इच्छा-तरंग) है और उस वृत्ति से कर्म होने लगता है
एवं कर्म से पुनः वैसी ही वासना फिर से
बनती जाती है। यह तीन अरों का चक्र (वासना, वृत्ति, कर्म) निरंतर जीवन में चलता रहता है।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहन्ति
जन्तवः |
मनुष्यों का स्वाभाविक ज्ञान भी
अज्ञान-अविद्या से छिप जाता है और फिर वे अज्ञान-अविधा के वशीभूत
होकर मोह में पड़ जाते हैं एवं दुष्कर्म करने लग जाते हैं। अत: यत्न करें कि हमारे
ऊपर अज्ञान हावी- प्रबल न हो जाए। यदि हम अज्ञान को हटाते हुए ज्ञान को बढ़ाते रहेंगे तो--
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्
कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञान अर्थात् विवेक उत्पन्न होते ही
दुष्कर्म स्वयं नष्ट हो जाते हैं। अतः ज्ञान ही मानव की आत्मा और
अन्तःकरण को पवित्र करने वाला है एवं अज्ञान मानव का सबसे बड़ा शत्रु
है।
प्रश्न- मनुष्य अशुभ कर्म क्यों करता है?
उत्तर- जीवात्मा मनुष्य शरीर में आकर
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि विषयों के भोग (सेवन) में फंसकर अल्पज्ञ होने के कारण अपने
शुद्ध चेतनरूप को भूल जाता है और जड़-प्रकृति के भोग में फंस जाता है। इस आसक्ति
के कारण काम, क्रोध, लोभादि, रजोगुण से उत्पन्न होने वाले विकारों से प्रभावित होकर न चाहता हुआ
भी वह पाप में प्रवृत्त हो जाता है। भगवद् गीता में योगिराज
कृष्ण कहते हैं
(१) ध्यायती विषयान् पुंसः
संगस्तेषूपजायते ।
संगात् संजायते कामः कामात्
क्रोधोऽभिजायते ॥
(२) क्रोधाद् भवति संमोहः सम्मोहात् स्मृति
विभ्रमः ।
स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्
प्रणश्यति ॥
अर्थ-(१) हे अर्जुन ! विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो
जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न
पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
(२) क्रोध से अधिक अर्थात् मूढभाव उत्पन्न
होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि, अर्थात् ज्ञानशक्ति
का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपनी श्रेय-साधना से गिर
जाता है।
प्रश्न-जीवात्मा अच्छे-बुरे की पहचान
कैसे करे ?
उत्तर- जीव अच्छे-बुरे की इस प्रकार पहचान
कर सकता है।
१. अपने बुद्धि कौशल से--"मत्वा कर्माणि सीव्यतीति मनुष्यः" मनुष्य उसको
कहते हैं जो बुद्धिपूर्वक विचार करके कार्य करता है। बुद्धि की
श्रेष्ठता में ही मनुष्य की श्रेष्ठता है।
२. महापुरुषों की शिक्षा से--
३. वेदादि सत् शास्त्रों से--
४. आत्मानुकूलता से---
५. अन्तःकरण में प्रभु प्रेरणा से--
6.संसार के रोग, दुःख, मृत्यु आदि--
७. होनी, अनहोनी घटनाओं से----
८. अपने ज्ञानोपार्जन से----
प्रश्न- यथाकारी तथा भावी क्या होता है ?
उत्तर- १. यथाकारी यथाचारी तथा भवति
साधुचारी साधुर्भवति पापचारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः
पापेन। अथो खल्बाहुः काममय एवायं पुरुष इति सः यथा कामो भवति
तत्क्रतुर्भवति, यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते ॥
यह आत्मा जैसा कर्म करने वाला होता है, जैसा आचरण करने वाल
होता है, वैसा ही बन जाता है। अच्छा करने वाला अच्छा हो जाता है, पाप करने वाला पापी
हो जाता है। पुण्य कर्म से पुण्यवान्, पाप कर्म से पापी बन जाता है। यह आत्मा संकल्प वाला (काममय) है, जैसी इसकी कामना होती है, वैसी इसकी
क्रियाशक्ति होती है, जैसी क्रियाशक्ति होती है वैसा वह कर्म करता है, जैसा कर्म करता है
वैसा ही वह फल भी प्राप्त करता है।
२. पुण्येन पुण्यं लोकं नयति, पापेन पापम् उभाभ्यामेव मनुष्य लोकम्
जीवात्मा पुण्य कर्म से उच्च योनियों
में जाता है। पाप कर्म से नीच योनियों (कृमि, कीट, स्थावर आदि) में शुभाशुभ बराबर
मिश्रित कामों से मनुष्य योनि को प्राप्त करता है।
३. ऊर्ध्वं सत्य विशालाः ।
सत्व प्रधान पुरुष मनुष्यों में भी उन्नत
अवस्था वाले जनों के यहाँ जन्म लेते हैं।
४. तमो बिशाला मूलतः
तमोगुणी पुरुष नीच योनियों में जन्म
लेते हैं।
५. मध्ये रजोविशालाः ।
रजोगुण प्रधान जीव मध्य योनियों में
जन्म लेते हैं।
प्रश्न- जीव को किसकी उपासना करनी चाहिये ?
उत्तर-स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ की ही की जाती है। सबसे अधिक उन्नत, उत्तम,श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ
है उसको परमेश्वर कहते हैं। जिसके तुल्य कोई न हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो
उससे अधिक क्योंकर हो सकता है?
जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और
सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं,
वैसे अन्य किसी जड़-पदार्थ व जीव के
नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य हो उसके गुण, कर्म, स्वभाव भी सत्य होते हैं। इसलिये
मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी
न करें।
प्रश्न- क्या परमात्मा के यहाँ कोई
अन्याय-अधर्म होता है ?
उत्तर- नहीं, कदापि नहीं।
१.
न किल्विषमत्र
नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः सममान एति।
अनून पात्रं निहितं न एतत् पक्तारं पक्कः पुनराविशाति ॥
परमेश्वर के यहाँ कोई त्रुटि या
अन्याय नहीं है, न देर है, न अन्धेर है। वह अकारण किसी को पीड़ित भी नहीं करता। वहीं न किसी
की सिफारिश चलती है और न किसी के साथ रिआयत ही होती है एवं न वहाँ कोई मित्र ही
सहायता कर सकता है। वह तो सच्चा न्यायकारी है, जीव के कर्मों का ठीक-ठीक फल देता है
न कम, न अधिक। जो जैसा और जितना कर्म करेगा उसे वैसा ही और उतना ही फल
मिलेगा।
एक शायर का कथन
हालात बदलने में कभी देर नहीं है,
कुदरत के उसूलों
में उलट-फेर नहीं है।
आगाह ने अंजाम से हँस करके
यों कहा,
मालिक के यहाँ देर है अन्धेर नहीं है।
न तो देर है और न अन्धेर
है,
तेरे कर्मों का ये सब फेर है।
3.अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोऽपिवने विसर्जितः, कृतप्रयत्नोऽपि
गृहे न जीवति ॥
दैव (भाग्य प्रारब्ध) से रक्षित
प्राणी अरक्षित-विषम स्थिति में भी सब प्रकार से सुरक्षित रहता है। इसके विपरीत
दैव का मारा हुआ अभागा आदमी सब ओर से सुरक्षित किये जाने पर भी नष्ट हो जाता है।
अनाथ वन में अरक्षित पड़ा हुआ भी देव की अनुकूलता से जीवित बचा रहता है, और देव के प्रतिकूल
होने पर घर में अनेक प्रयत्न करने पर भी विनाश को प्राप्त हो जाता है।
४. यथा गोसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति
मातरम् ।
तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारं प्रति
गच्छति ॥
जैसे एक गौ का बछड़ा हजारों गौओं को
छोड़कर अपनी माता के पास हो जा पहुंचता है वैसे ही पहले किया हुआ कर्म भी अपने
कर्त्ता के पास हो जा पहुंचता है और उसे सुख-दुःप में फल देता है। जैसी भी मति बनाकर जो जैसा कर्म करेगा, वैसी ही उसकी गति
(अन्य जन्म शरीरादि) भी होगी। गति वही होगी जैसी कि जीवन में कर्म करने को मति
(बुद्धि) बना रखी है। यह नहीं हो सकता कि जीवनभर काम तो किये प्राणि हत्या के. , लूटने के, मिलावट के, लड़ाने-भिड़ाने के, पाप के, धोखा देने के
झूठ-चालाकी के और अन्त में ओम,
अल्लाह, गॉड कहकर अच्छी गति
हो जाय? भगवान कोई अन्धा,
अज्ञानी, बहरा अनाड़ी नहीं
है। वह सब जीवों के लिये एक-सा न्यायकारी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान है,
>वह यथा न्याय करता
है। किसी के भी कर्मफल को किसी भी प्रकार से बदला नहीं जा सकता। जैसे कर्मों का
पुलाव जिसने पकाया है, हो उसे अगले जन्म
में खाना पड़ेगा। मृतक की मति अन्त में भी वैसी ही रहती है जैसी उसने जीवनभर काम करते-करते बनाई
है, वह बदलती नहीं।
प्रश्न- जीव अपने विभिन्न कर्मों को कैसे भोगता है ?
उत्तर- यह जीव मन से जिन शुभाशुभ
कर्मों को करता है उन्हें सुख-दुःखरूप में मन से हो पागल (विक्षित) आदि होकर भोगता
है। वाणी से किये का गूंगा आदि होकर वाणी से और शरीर से किये को लूला-लंगड़ा आदि
होकर शरीर से भोगता है। जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उसको वृक्षादि स्थावर
का जन्म मिलता है। वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी-मृगादि का जन्म मिलता है, मन से किये दुष्ट
कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है। जो इन जीवों के देश में (प्रधानता) अधिकता से वर्तता (होता) है वह गुण उस जीव को अपने सदृश (समान) कर लेता है। जब आत्मा
में ज्ञान हो तब सत्त्व, जब अज्ञान रहे तब तम और जब राग-द्वेष में आत्मा लगे त रजोगुण जानना
चाहिये। प्रकृति के ये तीन गुण सब संसारस्थ पदार्थों और व्यक्तियों में व्याप्त
होकर रहते हैं। उसका विवेक (ज्ञान) इस प्रकार करें कि
जब आत्मा में प्रसन्नता, मन प्रसन्न] प्रशान्त के सदृश, शुद्ध भानयुक्त वर्ते तब समझना कि
सत्वगुण प्रधान और रजोगुण, तमोगुण अप्रधान है। जब आत्मा
और मन दुःख संयुक्त प्रसन्नता रहित, (किसी) विषय में इधर-उधर गमन-आगमन में
लगा हो तब समझना कि रजोगुण प्रधान है और सत्त्वगुण, तमोगुण अप्रधान हैं। जब आत्मा और मन
मोह, अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फैसा (व्यस्त) हो, उनमें कुछ विवेक न
रहे, विषयों में आसक्त, तर्क-वितर्क रहित
और कुछ भी जानने योग्य न हो,
तब निश्चय से जानें कि इस समय मुझ में
तमोगुण प्रधान है और सत्त्वगुण,
रजोगुण अप्रधान है।
प्रश्न- बहुत से मनुष्य निर्धन और
अङ्गहीन क्यों होते हैं ?
उत्तर- यद्धात्रा
निज भालपट्ट लिखितं स्तोकं महद वा धनम्।
तत्प्राप्नोति मरुस्थलेऽपि नितरां
मेरी च नातोऽधिकम् ॥
तन्द्रीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा मा
कृथा।
कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलम्
॥
भगवान् ने जितना भी थोड़ा या अधिक जीव
के कर्मानुसार नियत कर दिया है,
वह उसे अवश्य ही मिलेगा। मरुभूमि में
भी जाकर उसमें न्यूनता नहीं होगी और न सोने के पहाड़ सुमेरु पर्वत पर जाकर उसमें
वृद्धि होगी। अतः धैर्य रखो और धनी मानियों के पास जाकर गिड़गिड़ाओ नहीं, देखो घड़ा, कुए और समुद्र में
से एक बराबर पानी ही उठाएगा,
न्यूनाधिक नहीं हाँ, सच्चाई से अपना
पूर्ण पुरुषार्थ अवश्य करते रहो।
बने रणे शत्रु जलाग्नि मध्ये महार्णवे
पर्वत मस्तष्के वा।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति
पुण्यानि पुरः कृतानि ॥
वन में, युद्ध में शत्रुओं में, जल में, अग्रि में महा समुद्र
में, पर्वत की चोटी पर सोते हुए, असावधान तथा संकट की घड़ी में मनुष्य
के पूर्वकृत पुण्य कर्म हो उसकी रक्षा करते हैं।
यद् वयङ्गा कुष्ठिनश्चान्धा % पड़वश्च दरिद्रिणः ।
पूर्वोपार्जित पापस्य फलमश्नन्ति
देहिनः ॥
अंगहीन, कोढ़ी, अन्धे, लंगड़े, लूले तथा दरिद्री लोग वास्तव में अपने
पूर्व जन्म के कर्मों का फल ही भोग रहे होते हैं।
स्वयं महेश: श्वसुरो नगेशः सखा धनेशः
तनयो गणेशः ।
तथापि भिक्षाटनमेव शम्भोर्बलवत्तर: केवलकर्मभोगः
॥
शिवजी स्वयं महेश (बड़े स्वामी) है, उनके ससुर हिमालय
पर्वत के स्वामीराज कहलाते हैं। इनके मित्र धन की वर्षा करने वाले कुबेर हैं और
इनके पुत्र सभी के दिन दूर करने वाले गणेशजी हैं, तो भी इनकी स्वयं की स्थिति कैसी है? नादिया बैल पर
बैठकर भिक्षा पात्र हाथ में लेकर शिक्षा के लिये घूमते-फिरते हैं और शमशान भूमि में हैं।
इनके लिये भी पूर्वकृत कर्मानुसार परमात्मा की यही न्यायव्यवस्था है।
प्रश्न- एक जीव के कर्म का फल दूसरे--अन्य जीव
को मिल सकता है या नहीं?
उत्तर- नहीं, किचित् मात्र भी
नहीं जिस जीव ने जो जैसा कर्म किया है उसका फल उसी को
कर्मकर्ता को जस- का- तस मिलेगा, अन्य किसी को नहीं। इसमें प्रमाण------
निर्दग्धं
परदेहेऽपि परदेहं चलाचलम् ।
विनश्यन्तं विनाशान्ते
नावि नावमिवाहितम् ॥
न म्रियेरन न जीवेरन् सर्वे स्युः सर्वकामिनः ।
नाप्रियं प्रति पश्येयुरुत्थानस्य
फले सति ॥
जैसे एक नौका के होने पर उस पर बैठे हुए। लोगों के लिये दूसरी नाव प्रस्तुत हो, उसी प्रकार एक शरीर
से निकले या मृत्यु प्राप्त हुए जीव को कर्मफल भोग के लिये दूसरा नाशवान् शरीर
उपस्थित कर दिया जाता है। यदि प्रयत्न का फल प्राप्त करना अपने हाथ में होता तो
मनुष्य तो बूढे होते और न मरते ही और वे अपनी समस्त कामनाएं स्वयं ही पूरी कर लेते, फिर वे किसी
नियम-आदेशादि विधान को भी न मानकर स्वेच्छाचारी हो जाते।
न कर्मणा पितुः पुत्रः पिता वा पुत्रकर्मणा ।
मार्गेणानेन गच्छान्ति
बद्धाः सुकृत दुष्कृतैः ॥
यत्करोति शुभ कर्म तथा कर्म सुदारुणम्
।
तत्कतैंव समश्नाति
बान्धवानां किमत्र ह।।
पिता के कर्म से पुत्र नहीं, पुत्र के कर्म से
पिता नहीं सब अपने अपने कमों से बंधे हुए अलग-अलग मार्गों से जाते हैं। चाहे कोई
अच्छा कर्म करे या बुरा, अपने शुभाशुभ कर्मों का फल सुख-दुःखरूप में स्वयं कर्ता ही भोगता
है, इसमें उसके बन्धुबान्धव क्या करेंगे, इस विषय में अन्य कोई कुछ नहीं कर
सकता।
आत्मान्तर गुणानाम् आत्मान्तरेऽकारणत्वात्।
अन्य आत्मा के गुणों का अन्य आत्मा
में कारण न होने से, एक आत्मा के किये कर्म का फल दूसरी आत्मा को नहीं मिल सकता।
प्रत्येक कर्म का फल उसके कर्ता को ही मिलता है अन्य किसी को नहीं, कर्ता को कर्मफल न मिलने से कृतहानि और
अकर्ता को कर्म का फल मिलने से अकृताभ्यागम दोष होता है जो कि सर्वधा अन्याय है। परमेश्वर तो न्यायकारी है, उसके द्वारा अन्याय
कभी नहीं हो सकता। उसके द्वारा तो यथोचित ही फल मिलेगा, न्यूनाधिक नहीं।
इसी प्रकार कर्म का फल मिलेगा भी उसी को, जिसने यह कर्म किया है अन्य किसी को
नहीं।
प्रश्न- फिर दूसरे द्वारा किये
दुर्घटना (एक्सीडेण्ट) आदि कर्मों से अन्यों को दुःख क्यों होता है ?
उत्तर- हाँ, यह ठीक है कि दूसरे
के किये कर्मों से अन्य जीवों को भी सुख-दुःख उठाना पड़ सकता है, परन्तु यह उनके
कर्म का फल नहीं है, अपितु उसके कर्म का प्रभाव है, जो कि उसके द्वारा हुई दुर्घटना आदि
से दूसरे प्राणी को भी मृत्यु आदि दुःख हुआ।
दुर्घटना का दण्ड-फल तो उस दुर्घटना
करने वाले को ही मिलेगा। चाहे यह दण्ड राज, समाज दे अथवा भगवान् दे, मिलेगा उसी को
परन्तु उस दुर्घटना का दुःख-प्रभाव जिसे भोगना पड़ा है, भगवान् उसे शुभ
प्रतिकार (मुआबजा) (अच्छा प्रतिफल) भी अवश्य देगा, भगवान् उसे ऐसे ही नहीं छोड़ देगा। वह
दुःख भोक्ता को बिना मुआबजा इनाम दिये नहीं रहने देगा। भगवान् सर्वथा न्यायकारी
है, यह दोनों को यथोचितरूप में दण्ड, पुरस्कार आदि अवश्य देता है। जीव को भगवान् ने
कर्म करने को स्वतन्त्रता प्रदान की हुई है, अतः यह अच्छा-बुरा (पुण्य पाप) रूपी
कैसा भी कर्म कर सकता है, परन्तु उसके किये कर्मों का फल वह स्वयं अपनी इच्छानुसार नहीं ले
सकता। उसे यथोचितरूप में कर्मों का फल तो भगवान् ही देता है, अन्य कोई नहीं।
प्रश्न- क्या पशु-पक्षियों जैसी बातें
आदतें मनुष्यों में भी होती है ?
उत्तर-हाँ होती हैं और वे मनुष्यों को
छोड़नी चाहिये। जैसे कि----
उलूकपातुं शुशुलुकयातुं जहि श्वयातुमुत
कोकयातुम् ।
सुपर्णयातुमुत गृधयातुं दुषदेव प्रभृण रक्ष
इन्द्र ॥
इस वेद-मन्त्र में मनुष्यों को
निम्रलिखित पशु-पक्षियों को बुरी आदतें a (दुष्प्रवृत्तियाँ) छोड़ने के लिये प्रेरणा दी
गई है----------
१. उलूक---- उल्लू में अन्धकार प्रियता और मोह होता है। मनुष्यों में भी
मोहरूपी अज्ञान आ जाता है। इसे छोड़ना चाहिए।
२. शुशुलुक---- भेड़िया में चालाकी, क्रूरता और क्रोध होते हैं। मनुष्यों
में भी चालबाजी, क्रूरता, क्रोध होता है। यह सब
नही होने चाहिए।
३. श्व---- कुत्ते में स्वजाति द्रोह, लोभ, मत्सरता, चापलूसी, वान्ताशी आदि
दुर्गुण होते हैं। मनुष्यों में भी ईर्ष्या, द्वेष, द्रोह आदि दुर्गुण आ जाते हैं, यह सब नही होने चाहिए।
४. कोक-चिड़ा में अधिकामातुरता का दोष
होता है। मनुष्यों में भी भरे होते हैं, जो ठीक नहीं।
5. सुपर्ण-गरुड़ (नीलकण्ठ) पक्षी में
अहंकार, आक्रमण आदि आदतें होती हैं । मनुष्यों में भी अहंकार मदादि होते हैं।
६ गृध्र----गिद्ध में अतिलोभ,
लालच, मुर्दाभक्षण आदि आदतें होती हैं। मनुष्यों में भी अतिस्वार्थ, अतिलोभ, लालसा और मांसभक्षण
आदि दोष पाए जाते हैं। जो मनुष्य के लिए नितान्त अनुचित हैं।
इत्यादि पशु-पक्षियों के समान काम, क्रोध, लोभ, लालच, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष आदि
प्रवृत्तियों को मनुष्य लोग त्याग दें, क्योंकि शिश्नोदर परायण होना तो
अमूल्य मानव जीवन को नष्ट करना है। ये दुर्वृत्तियाँ अत्यन्त घातक और भयंकर हैं। इन भाव-भावनाओं के रहते हुए तो मनुष्य पुनः पुनः
इन्हीं योनियों में भटकता हुआ महान् दुःख झेलता फिरता है। उल्लू, भेड़िया, कुत्ता, चिड़ा] बाज और गिद्ध आदि सभी निकृष्ट योनियां है अथवा ये सभी भयंकर दुःखदायी बन्दीघर है।
जीव का शरीर में आना और इससे निकलना
स्वेच्छा से नहीं है, किन्तु कर्मानुसार ईश्वराधीन है। " सतिमूले तद्विपाको जात्यायुर्भागाः ।" (योगदर्शन २।१३)
के अनुसार अदृष्टपूर्व जन्मकृत कर्मों के जन्म, जीवन (आयु) और भोग ये तीन फल होते
हैं। जिस इन्द्रिय से उसने मनुष्य जीवन में अत्यधिक पाप किये होते हैं, उसकी वही इन्द्रिय
उससे छीन ली जाती है। वह सारा जीवन उस इन्द्रिय के बिना रहता है। इसीलिये तो जीवों के शरीर में
अन्धा, लंगड़ा, लूला, काना, बहरा पागल आदि दोष होते हैं। इन्द्रिय छिन जाने का यही अभिप्राय है
कि उस इन्द्रिय का आगे दुरुपयोग न हो सके। जिसने मन सहित सभी इन्द्रियों का
दुरुपयोग किया हो, उसे वृक्ष आदि स्थावर योनियों में भेज दिया जाता है। प्रभु का
दृष्टिकोण तो उसे दण्ड देकर सुधारना है, न कि बदला लेना।
प्रश्न-कर्म करने पर भी मनुष्य दुःखी क्यों रहता है ?
उत्तर---जैसे परिवार,
समाज और राज्य व्यवस्थाओं के भंग करने से व्यक्ति सर्वत्र
तिरस्कृत और दण्डित होता है वैसे ही विश्व शासन के भी कुछ मूल तत्व हैं और वे
जीवों के कल्याण के लिये ही हैं। उनसे सम्यक लाभ उठाने के लिये स्वेच्छा से उन
नियमों के अनुसार चलें, उनसे सहयोग करें। यही शुभ कर्म करना या कर्तव्यपालन कहलाता है। केवल अपनी
इच्छानुसार कर्म करने में अल्पज्ञ जीव का हित नहीं है और न आत्मविकास। उल्टा-सीधा करना, खाना, अनिष्ट जुटाना,
>नियमों का उल्लंघन
करना, परस्पर द्वेष-- कलह बढ़ाना, राजसिक- तामसिक- मनोवृत्ति वाला बनना, आसक्ति-कामनाओं के
वश में होना स्वार्थ सिद्धि हेतु परहानि
भलाई करता है, दान देता है,
यज्ञ करता है, प्रभु की भक्ति भी
करता है, इस प्रकार के नियमित और व्यवस्थित जीवन के फलस्वरूप उसे संसार में
सुख भोगने की सुविधा प्रदान करने के लिये ईश्वर की न्याय व्यवस्था से उसे अगला
जन्म किसी राजकुल में मिल जाता है। परन्तु जब वह राजा बन जाता है, तब उसे धन, यौवन, प्रभुता, अविवेकता का नशा चढ़
जाता है, तो वह जप-तपादि सब भूल जाता है।
अभिमान से भरपूर हुआ वह नवयुवक राजा
विषय-भोगों में, दीन दुःखियों को सताने में, प्रजा का अहित करने में अपनी महत्वाकांक्षा और धन की लालसा के
कारण लाखो प्राणियों के खून बहाने में, असहाय देवियों का सतीत्व भंग करने आदि में अपना जीवन लगाएगा तो
उसे फल भोगने के लिये पुनः पशु-पक्षियों की योनियों में चक्कर खाने पड़ेंगे। उसे
सुअर की योनि-जन्म मिले तो बिष्ठा मल खाकर
दिन बिताने होंगे। वह मनुष्य योनि में कोई शुभ कर्म नहीं करेगा तो उसे अगली मनुष्य
योनि कैसे मिल सकती है राक्षस प्रवृत्ति के व्यक्तियों को मानव जन्म कभी नहीं मिल सकता। उन्हें निश्चितरूप
से पशु-पक्षियों और यहाँ तक कि वृक्षादि की योनि में भी जाना होता है।
कृतिः- जीवात्म विज्ञान
सारः- जीवात्मा संबंधी प्रश्नोत्तर
संकलनकर्ताः- पं0 महेंद्र कुमार आर्य पूर्व प्रधान आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर नोएडा, जिलाः-
गौतमबुद्धनगर हैं।