पं0 महेंद्र कुमार आर्य
भजन.२२७
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वह प्यारा गीत मैं गा न सका जो गीत मैं गाने आया था
वह सुन्दर साज बजा न सका जो साज बजाने आया था
उलझी सितार की तारों को सुलझाने में ही लगा रहा
तबले बाजे के साथ आवाज मिलाने में ही लगा रहा
यह भूल गया मैं प्रीतम को संगीत सुनाने आया था
आसन भी सिद्ध न कर पाया न प्राणायाम को अपनाया
हृदय मन्दिर में रहता है फिर भी दर्शन न कर पाया
चिन्ताओं ने मकड़ी की तरह कुछ ऐसा जाल बिछाया था
आशा थी मानव देह पाकर मैं उत्तम कर्म कमाऊँगा
इस जन्म मरण के बन्धन से अब मैं छुटकारा पाऊँगा
मुक्ति पाने के लिए मैंने यह नर तन चोला पाया था
इस घोर अँधेरी नगरी में ज्ञान की जोत जगाऊँगा
कर के प्रकाश निज जीवन में संसार को भी चमकाऊँगा
इस भावना को लेकर मैंने घर बार सभी विसराया था
अब इन सोचों में डूबा हूँ प्रीतम को कहाँ बिठाऊँगा
नहीं योग साधना की मैंने प्रभु दर्शन कैसे पाऊँगा
कुछ बात न बनती नजर आये मैं भाग्य बनाने आया था
नन्दलाल यह लोक नहीं सुधरा कैसे परलोक सुधारोगे
जीवन के ७४ साल गए बाकी किस तरह गुजारोगे
क्या जन्म मरण के बन्धन में ही चक्कर लगाने आया था
भजन.२२८
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ईश्वर भजन किया कर बन्दे जो तूझे मुक्ति पानी है।
मत ना खोवे जन्म अकारथ थोड़ी सी जिन्दगानी है।
दोनों समय की सन्ध्या कर तू ब्रह्मा में ध्यान लगाया कर।
अन्दर के पट खोल देख ले बाहर के पट लाया कर।
चंचल मन को रोक बावरे ओ३म् के गुण गाया कर।
जैसे दीपक ज्योति हवा में ऐसे मति डुलाया कर।
जैसे दर्पण पड़ा गर्द में ऐसे ही मन सैलानी है ॥
मत ना......... १
अड़सठ धाम तेरे घट अन्दर नित उठ कर स्नान सदा।
कस्तूरी के मृग के तरिया भटकत है बिन ज्ञान सदा ।
तृष्णा पूरी कभी न होती क्यों भूला नादानः सदा ।
पाँच ठगों से बचा रहे तो तुझे मिले भगवान् सदा ।
तू काया को अपनी समझे यह तो एक दिन जानी है ॥
मत ना............ २
कोई वस्तु न चले साथ में सब सामान पड़ा रह जाय।
बाग बगीचे कोठी बंगले ऊँचा महल खड़ा रह जाय।
जवाहरात सोना चाँदी धन भूमि बीच गड़ा रह जाय।
चक्रवर्ती भूप के ताज में हीरा लाल जड़ा रह जाय।
जोड़.जोड़ धरे खाया न खर्चे माया आनी जानी है।
मत ना.......... ३
शराबी, मांसाहारी दुर्जन न संगत चंडाल की कर।
है सामर्थ धनी तू सेवा अनाथ और कंगाल की कर।
वस्त्र अन्न से क्षुधा निवृत्ति भूखे और बेहाल की कर।
लालसिंह फिर मिले विधाता प्रतीक्षा उस काल की कर।
समदर्शी तो पार उतर जाय डूबे नर अभिमानी हैं॥
मत ना..........४
भजन.२३९
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तू कर प्रीतम से प्रीत यूँ ही दिन बीते जाते हैं,
तू हार के जीवन जीत यूँ ही दिन बीतते जाते हैं।
शुरू से है यह ताना बाना आना आजए कल जाना,
कुएँ से लोटे भर.भर आयें, खाली हुए रवाना।
यही जगत् की प्यारे रीत यूँ ही दिन बीते जाते हैं।
तूं कर..........
दुःख की धूप कभी है सिर पर, कभी है सुख की छाया,
बदल बदल कर समय सभी परए बारी.बारी आया।
वर्षा गर्मी और शीत यों ही दिन बीतते जाते हैं।
तूं कर..........
सैंकड़ों संगी साथी इस जा बनें हैं तेरे सहारे,
तू इनका है बहुत प्यारा, यह हैं तेरे प्यारे ।
पर वहां नहीं कोई मीत यूँ ही दिन बीतते जाते हैं।
तू कर............
अब भी नत्थासिंह संभल जा काफी समय गंवाया,
खुद बेसमझ जरा न समझा लोगों को समझाया।
लिख लिख कर बस यह गीत यूँ ही दिन बीतते जाते हैं।
तू कर................
अंधेर नहीं है. २४०
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भगवान् के घर देर या अन्धेर नहीं है।
उस ऊँची अदालत में हेर फेर नहीं है, अन्धेर नहीं है।
सुनते हैं घट पाप का भरता तो खूब जाए,
फिर अपने भार से ही पल भर में डूब जाए,
इन्साफ में लगती है जो वह देर नहीं हैं,
अन्धेर नहीं हैए भगवान् के घर अन्धेर नहीं है.........
देखो नियत समय पर सूरज निकलता ढलता,
अनुकूल वक्त लेकर दुनिया में पेड़ फलता,
विन वक्त यहाँ शाम और सबेर नहीं हैं,
अन्धेर नहीं है,.भगवान् के घर में अन्धेर नहीं है...........
बोलो जहाँ में किसका सिक्का सदा चला है,
नामो निशान इक दिन दुनिया से मिट गया है,
कब रेत की दीवार बनी ढेर नहीं है,
अन्धेर नहीं है, भगवान् के घर में अन्धेर नहीं है...........
भजन.२४१
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प्रभु दर्शन पाने आए थे, प्रभु दर्शन पाना भूल गए।
जिस पथ पर हम को जाना था, उस पथ पर जाना भूल गए ॥ १ ॥
मानव जीवन को पाकर भी, यह उलझन हम से न सुलझी।
उस के अन्दर, हम ध्यान लगाना भूल गए ॥ २ ॥
य्म नियमों के साधन द्वारा अपने को निर्मल कर न सके।
ऋषियों की भांति ज्योति से, ज्योति को मिलाना भूल गए ॥ ३ ॥
अपनी ही अविद्या के कारण, भगवान् को समझा दूर सदा।
हम खुल कर खेले पापों से, शुभ कर्म कमाना भूल गए ॥ ४ ॥
धरती के मानव हैं जितने भाइयों सा सबसे नाता है।
हम हिंसावादी बन बैठे, देवों का जमाना भूल गए ॥ ५ ॥
भूलें सुलझाने देश की फिर, प्रभु भक्त दयानन्द जी आए।
ऐसे उपकारी नेता की आज्ञा का निभाना भूल गए ॥ ६ ॥
भरोसा कर ईश्वर पर. २५८
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भरोसा कर तू ईश्वर पर, तुझे धोखा नहीं होगा।
यह जीवन बीत जायेगा, तुझे रोना नहीं होगा।
कभी सुख है, कभी दुःख है, यह जीवन धूप छाया है।
हँसी में ही बिता डाले, बितानी ही यह माया है ॥ १ ॥
जो सुख आवे तो हँस देना, जो दुःख आवे तो सह लेना।
न कहना कुछ कभी जग से प्रभु से ही तू कह लेना ॥ २ ॥
यह कुछ भी तो नहीं जग में, तेरे बस कर्म की माया।
तू खुद ही धूप में बैठा, लिखे निज रूप की छाया ॥३॥
कहाँ ये था कहां तू था, कभी तो सोच ऐ बन्दे ।
झुकाकर शीश को कह देए प्रभु बन्दे प्रभु बन्दे ॥ ४ ॥
बू न हो जिस गुल में, उस गुल से बेहतर खार है।
दर्द गर दिल में न हो, ये जिन्दगी बेकार है ॥ ५॥
भजन.२५९
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तेन की चुनरी रंगने वाले मिले यहाँ रंगरेज बहुत।
लेकिन कोई मन मैल छुटाने वाला नहीं मिला ॥
जीवन फूल खिला कॉटों में, तथा धूप में नश्वर तन,
स्नेह न पाया तेरे उर का, इधर उधर भटका यह मन।
टेढी राह चलाने वाले मिले यहाँ पर लोग बहुत,
तेरे घर का सीधा पंथ दिखाने वाला नहीं मिला ॥ १ ॥
पतझड़ की आँखों में खटका सदा बहारों का नर्तन,
देख सका है कौन किसी का जीवन यहाँ सुखी दो क्षण,
द्वेषभाव ईर्ष्या आपस में रखने वाले मिले बहुत।
लेकिन किसी पतित को यहाँ उठने वाला नहीं मिला ॥ २ ॥
जब तक रहा वसन्त हृदय में सबको भाया यह उपवन,
लूट लिया फागुन का मेला, छोड़ गये सावन के धन,
सुख में साथी बनने वाले मिले यहाँ पर मीत बहुत।
लेकिन कोई दुःख में दर्द बंटाने वाला नहीं मिला ॥ ३ ॥
किस डाली पर डाल हिँडौला में बहलाऊँ मन उन्मन,
किसको हृदय चीर दिखाऊँ अन्तस की मीठी धड़कन।
अंगुली यहाँ उठाने वाले मिले मुझे इंसान बहुत,
लेकिन अंगुली पकड़ राह पर लानेवाला नहीं मिला ॥ ४ ॥
किस गोकुल में तुमको ढूंडू किससे पूछूं द्वार किधर,
किस कोने में अलख जगाकर पाऊँ तुमको नट नागर।
बंसी मधुर बजाकर मन बहलाने वाले मिले बहुत,
लेकिन बंसीधर का पता बताने वाला नहीं मिला ॥५॥
किस नभ को मैं व्यथा सुनाऊँ किस चन्दा पर वारूँ मन,
कौन खरीदेगा इन भीगी पलकों का मेरा मधुवन।
मरघट तक डोली ले चलने वाले मिले कहार बहुत,
दुल्हिन को तेरे दर तक पहुँचाने वाला नहीं मिला ॥६॥
भजन.२६०
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उठ जाग मुसाफिर भोर भई अब रैन कहाँ जो सोवत है,
जो जागत है सो पावत है जो सोवत है सो खोवत है ॥ १ ॥
टुक नींद से अंखियाँ खोल जरा और अपने प्रभु से ध्यान लगा,
यह प्रीत करन की रीत नहीं, प्रभु जागत है तू सोवत है ॥ २ ॥
जो कल करना सो आज करले जो आज करना सो अब करले,
जब चिड़ियों ने चुग खेत लिया फिर पछताये क्या होवत है ॥ ३ ॥
नादान भुगत करनी अपनी ऐ पापी पाप में चैन कहाँ,
जब पाप की गठरी शीश धरी फिर शीश पकड़ क्यों रोवत है ॥ ४॥
भजन.२६१
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हे ईश तुम कहाँ हो अपना पता बता दो।
कब से भटक रहा हूँ कोई रास्ता दिखा दो ॥
तुझे देवता बनाकर मन्दिरों में पूजा,
खुदा तुझे समझकर मन मस्जिदों में ढूँढा
तुम बिन तड़फ रहा हूँ कोई रास्ता दिखा दो ॥ १ ॥
तुमसे बिछुड़ गया मैं तुझे खोजकर मैं हारा,
न जाने किस जन्म से फिरता हूँ मारा.मारा,
मानव जन्म दिया तो इसको सफल बना दो ॥ २ ॥
ऋषियों ने भी सुनाई तेरी ही वेदवाणी
मैंने उसे भुलाया मेरी ही नादानी,
फिर वेद माँ का अमृत प्रभुवर मुझे पिला दो ॥ ३ ॥
भजन.२६२
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दुनियाँ को देख दुनियाँ हैरत में आ रही है।
शक्ति है कौन जो ये चक्कर चला रही है ॥ १ ॥
भानु शशि सितारे दिनरात घूमते हैं।
किसकी महान् माया ये इसको घुमा रही है ॥ २॥
देखो तो जड़ जगत् की रचना अजीब कैसी।
फूलों की क्या सुगन्धी मन को लुभा रही है ॥ ३ ॥
ऊँचे पहाड़ देखे हिम की चट्टान वाले।
गंगा से पूछा हमने भागी क्यों जा रही है ॥ ४ ॥
निश में आकाश देखा आनन्द वाटिका में।
दीये से जल रहे हैं छवि कैसी छा रही है ॥ ५ ॥
भूमि को खोद करके देखा तो जल भरा है।
भूमि में जल जलों में भूमि समा रही है ॥ ६॥
बच्चा हो जब गर्भ में माता से पूछ देखो।
सच्ची बता दी माता तूं क्या बना रही है ॥७॥
माता पिता ही दोनों इन्कार कर गये हैं।
दोनों ही से ये न्यारी रचना रचा रही है ॥ ८ ॥
जग को बनाने वाला जग में ही रम रहा है।
रचिता की शान भीष्म रचना जता रही है ॥ ९ ॥
भजन.३२४
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वेला अमृत गया, आलसी सो रहा, बन अभागा
साथी सारे जगे तू न जागा ॥
झोलियाँ भर रहे भाग्य वाले,
कितने पतितों ने जीवन सम्भाले
रंक राजा बने, भक्ति रस में सने, कष्ट भागा ॥१॥
कर्म उत्तम थे नरतन जो पाया,
आलसी बनके हीरा गंवाया,
उल्टी हो गई मति, करके अपनी क्षति, चोला त्यागा ॥ २ ॥
धर्म वेदों का देखा न भाला,
प्यारा जीवन गया न सम्भाला,
सौदा घाटे का कर, हाथ माथे पै धर, रोने लगा ॥३॥
बन्दे कुछ भी न तूने विचारा,
सिर से ऋषियों का ऋण न उतारा,
हंस का रूप था, गदला पानी पिया, बनके कागा ॥ ४ ॥
भजन. ३२५
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आया है जहाँ में शुभ कर्म कमा के जा,
देख निराली दुनियाँ मत जीवन व्यर्थ गँवा ।
प्रातः सायं ओम् को गा ले
परम पिता से प्रीत लगाले
जीवन में उपकार किया कर मत ना पाप कमा ॥ १ ॥
मननशील ही व्यक्ति कहलावे,
ऐसा लेख वेद बतलावे,
मनुर्भव उच्चारण करके वेद रहा बतला ॥ २ ॥
सहस्र कर से दान किया कर,
अमृत बांट अमृत तू पिया कर,
जीवन से जीवन बन जाये, ऐसी क्रान्ति ला ॥३॥
अमृतमयी वेद की वाणी,
राघव पढ़ कर देख तू प्राणी,
परम धर्म वेदों का पढ़ना मिथ्या नहीं जरा ॥ ४ ॥
भजन.३२६
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क्र जा तू भला कुछ दुनियाँ का मत हीरा जन्म गँवा प्यारे ।
हर दिल में तेरी याद रहे कोई ऐसा कर्म कमा प्यारे।
जब तक तन में जान रहे
तुझे सेवा का ही ध्यान रहे।
हो निन्दा या तारीफ तेरी उस और न कान लगा प्यारे ॥ १ ॥
तुम्हें वीर माता ने जाया है,
नहीं ध्यान कभी तुम्हें आया है।
इक चमक निराली पैदा कर दे दुनियाँ को चमका प्यारे ॥ २ ॥
ऋषि दयानन्द एक अकेला था,
बस ईश्वर एक सहेला था।
बनकर मर्द मैदाँ निकले दिया सब अन्धकार मिटा प्यारे ॥ ३ ॥
ये देख अब कहाँ अन्धेरा है?
् हुवा साफ ये रस्ता तेरा है ।
सब काँटे स्वामी ने दूर किये अब तो हिम्मत दिखला प्यारे ॥ ४ ॥
भजन.३२७
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जो आया एकदिन उसको जाना पड़ेगा।
रोके परिवार चाहे रोके संसार फिर भी जाना पड़ेगा।
मौत को देखकर ना आँखों में आँसू भरना।
सुनले ओ मरने वाले हँस हँस के तुझको मरना ।
नश्वर हैं देह तेरी अग्नि में एक दिन इसको जलाना पड़ेगा ॥ १ ॥
निकम्मा दुनियाँ में जीवन अपमान का।
थोड़ा जीना अच्छा है पर जीवन जी शान का ॥
भव से जो पार होना तो वेदानुसार जीवन तुझको बनाना पड़ेगा ॥ २ ॥
मकड़े की भाँति काहे जाल है बिछाया।
विषय विकारों में क्यों जीवन बिताया ॥
कर्म जो किया है तूने अवश्य ही एकदिन उसको भुलाना पड़ेगा ।। ३ ।।
दुनियाँ है अजब सराय कोई आये कोई जाये।
साथी शमशान तक अपने और क्या पराये ॥
नन्दलाल सुनले मेरा कर्मों का फल अब तुझको पाना पड़ेगा ॥ ४ ॥
कृतिः- भजन संगीत सागर
सारः- ओइम और ईश्वर भक्ति/ आत्मा- जीवात्मा एवं मनुष्य
संकलनकर्ताः- पं0 महेंद्र कुमार आर्य पूर्व प्रधान आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर नोएडा, जिलाः- गौतमबुद्धनगर हैं।