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ईश्वर की पूजा-

-----------स्तुति,प्रार्थनाउपासना------- 



आचार्य करण सिह नोएडा

 जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीघ्र  निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से शब्दों दुख छूटकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश्य जीव आत्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं।इसीलिए परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिए। इससे इसका फल पृथक होगा। परंतु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि वह पर्वत के समान दुख प्राप्त होने पर भी न घबरावेगा और सब को सहन कर सकेगा । (सप्रसमुल्लास--७ )-------- मनुष्य में कई मौलिक उत्तेजनाये होती हैजो जीवन के पहले भाग में  समय-समय पर प्रकट होती है। उनमें एक प्रमुख उत्तेजना दूसरों का अनुकरण-अनुसरण करना है। बच्चे की शिक्षा आरंभ में बहुत कुछ माता-पिता को देखकर उनका अनुसरण करने से ही होती है।उसके लिए सीखने का यही सुगम मार्ग है और यही उसके लिए हितकर भी है। शास्त्रों में सत्संग की बहुत महिमा कही गई है।जिन लोगों से हम गिरे रहते हैं, उनका प्रभाव तो हम पर अवश्य पड़ता ही है; फिर क्यों न हम भले पुरुषों की संगत में रहे? यदि ऐसे पुरुष हमें मिल न सके तो हमारा कल्याण इसमें है कि हम उनके सद्गुणों का चिंतन करें। ऐसे चिंतन के लिए सर्वोत्तम विषय स्वयं परमात्मा है। उस पर चिंतन करने से उसके गुणों का ध्यान जमाने से हम उसके निकट आएंगे और उन गुणों का कुछ अंश हमारी आत्मा में प्रवेश करेगा। हमें अपनी त्रुटियों का ज्ञान होगा और हम उन से छुटकारा पाने के लिए परमात्मा से सहायता मांगेंगे।ईश्वर-पूजा आत्मिक बल को बढ़ाने का अद्वितीय साधन है। कुछ लोगों को भ्रम होता है कि पूजा का तत्व श्रद्धा भक्ति है। इसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता कि जिस वस्तु की हम पूजा करते हैं, वह क्या है; और वास्तव में है भी या केवल कल्पना मात्र ही है। यह विचार मिथ्या है। ऊपर के वाक्य में स्वामी जी ने कहा है कि पूजा का फल इस आत्मिक बल से पृथक भी होता है। परमात्मा चेतन है, हमारी प्रार्थना को सुनता है; वह मानने के योग्य को तो मानता है। किसी जड़ पदार्थ को हम परमेश्वर के स्थान में अपना उपास्य नहीं बना सकते। -----------------        मूर्ति पूजा अधर्म है--- जोकि वेद से विरुद्ध पुस्तकें हैं, उनमें कही हुई मूर्ति पूजा भी अधर्म रूप है।मनुष्यों का ज्ञान जड़ की पूजा से नहीं बढ़ सकता। किंतु जो कुछ ज्ञान है वह भी नष्ट हो जाता है। इसीलिए ज्ञानियों की सेवा- संग से ज्ञान बढ़ता है। पाषाण आदि से नहीं। क्या पाषाण आदि मूर्ति पूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी ला सकता है?नहीं-नहीं; मूर्ति पूजा सीढ़ी नहीं,किंतु एक बड़ी खाई है, जिसमें गिर कर चकनाचूर हो जाता है।(सप्रसमु११)---‐------‐---‐------------------- स्वामी दयानंद ने एक अवसर पर सत्य  कहा था की पत्थरों को पूजते-पूजते हमारी बुद्धि भी पत्थर हो गई है।------ मूर्ति पूजा की तरह तीर्थों पर जाना, विशेष जल स्थानों में स्नान करना मुक्ति का सुगम मार्ग समझा जाता है। लाखों पुरुष स्त्रियां ऐसे स्थानों पर जाते हैं।निर्धन होने पर भी इतना खर्च करते हैं। नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं। और यह सब इसलिए कि एक मिथ्या विश्वास में फंसे हैं। मुसलमानों में भी मक्का मदीना जाना पुण्य का काम समझा जाता है। वेद आदि सत्य शास्त्रों का पढ़ना धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्य भाषण ,सत्य  का मानना, सत्य का करना, ब्रह्मचर्य, आचार्य,अतिथि, माता-पिता की सेवा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना ,उपासना शांति जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्त, पुरुषार्थ, ज्ञान- विज्ञान आदि शुभ, गुण, कर्म दुखों से उतारने वाले होने से तीर्थ है। इसी प्रकार का हमें विज्ञान बढ़ाकर और सत्य मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, और ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना ,उपासना अवश्य ही करनी चाहिए ।