मुक्तिकाल का उपभोग कर जीवात्मा फिर संसार में
जन्म धारण करता है, इस प्रकार अनादि-अनन्तः काल तक चलता रहता है,
यह
सृष्टि चक्र
जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है किन्तु फल
भोगने में ईश्वरीय व्यवस्था के है, अधीन
प0 महेंद्र कुमार आर्य
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आत्मा-जीवात्मा क्या है? शास्त्रों में
कहा गया है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति, ये तीन पदार्थ
अनादि और नित्य है। ईश्वर इस सृष्टि का कर्ता- धर्ता- संहकर्ता और कर्मफल के
अनुसार जीवों को जन्म मृत्यु प्राप्त कराने वाला है। जीवात्मा कर्म अनुसार फल का
भोक्ता और स्वतन्त्र रूप से कर्मकर्ता है। प्रकृति जीव के लिए सृष्टि के रूप में
प्रस्तुत होती है। इस प्रकार यह सृष्टिचक्र आदिकाल से चला रहा है और जीव इसमें
कर्मानुसार जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। जीवात्मा प्राणियों के शरीर में
सूक्ष्म और अणु रूप में विद्यमान रहकर उसका संचालन करता है। जब तक जीवात्मा शरीर
में विद्यमान रहता है तब तक यह जीवित कहलाता है और जब शरीर को त्याग देता है तो
मृत्यु कहलाती है। वर्तमान विज्ञान अभी तक इतना समर्थ नहीं हो पाया है कि यह किसी
यन्त्र द्वारा सूक्ष्माति सूक्ष्म जीव को देख सके औरः यह जीवात्मा की सत्ता को
स्वीकार नहीं करता। किन्तु प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। हम
प्रत्यक्ष देखते हैं कि खेलता-हंसता प्राणी अचानक निष्क्रिय हो जाता है। सभी
इन्द्रियां और अंग काम करना बंद कर देते हैं। शरीर वही होता है किन्तु
डाक्टर-वैद्य भरपूर कोशिश करके भी उसमें चेतना को नहीं लौटा पाते। इससे ज्ञात होता
है कि कोई ऐसी शक्ति शरीर से भिन्न है जिसके रहने पर शरीर में जीवन रहता है,
न
रहने पर जड़ता आ जाती है। यही शक्ति ’जीवात्मा’ कहलाती है।
दर्शनशास्त्र में जीवात्मा की पहचान कई लक्षणों से बताई गई है। इच्छा-पदार्थों की
प्राप्ति की अभिलाषा, द्वेष-दुःख आदि की अनिच्छा, प्रयत्न-पुरुषार्थ,
सुख
आनन्द, दुःख-अप्रसन्नता, ज्ञान-विवेक, ये आत्मा की
पहचान कराने वाले छह लक्षण है। अर्थात् ये जहां होते हैं वहां आत्मा की प्रकृति
होती है। जीवात्मा नित्य और अविनाशी है। यह कभी नहीं मरता। जिसको संसार में मृत्यु
कहते हैं, वह इसका शरीर बदलना मात्र है,जैसे मनुष्य
वस्त्र बदलता है। जीवात्मा इस संसार में अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार सुख-दुःख,
शरीर
आदि को प्राप्त करता है। जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है किन्तु फल भोगने में
ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन है। कर्मफल कभी नष्ट नही होता और वह उसे भोगना ही पडता
है। बुरे कर्मो से उसे कीट पतंग, पशु पक्षी आदि योनी प्राप्त होती है।
अच्छे कर्मो से मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है। परजन्म में मनुष्य का जीवन पाने
के लिए श्रेष्ठ कर्मो का करना आवश्यक है। इस संसार से जीवात्मा के साथ कोई पदार्थ
नहीं जाता केवल उसके कर्म संस्कार जाते हैं। उन्हीं के आधार पर उसे अचछा- मुरा
जन्म मिलता है। जीवात्मा का चरम लक्ष्य है मोक्ष प्राप्ति। यह मोक्ष प्राप्ति
मनुष्य जीवन में ही संभव है, अन्य किसी योनि में नहीं। जीवात्मा
श्रेष्ठकर्म, ज्ञानप्राप्ति और ईश्वर दर्शन से मोक्ष पाने का
अधिकारी बनता है। ईश्वर के दर्शन उसे ज्ञान और योग साधना द्वारा अपने स्वरूप में
ही हो होते हैं। तब उसके सारे बन्धन, अज्ञान-अविद्या, दुख,कर्मसंसार
आदि मिट जाते हैं और वह परमात्मा की शरण में आनन्द का उपभोग करता है। जीवात्मा
अनेक सृष्टिकाल तक मुक्ति में रहता है। मुक्तिकाल का उपभोग कर जीवात्मा फिर संसार
में जन्म धारण करता है। इस प्रकार अनादि-अनन्तः काल तक यह सृष्टि चक्र चलता रहता
है। मनुष्य दो हाथ-दो पैर वाले विशेष आकृति वाले प्राणी को ’मनुष्य’ नाम
दे दिया गया है। किन्तु विशेष आकृति होने मात्र से कोई मनुष्य नहीं बनता है।
मनुष्य तो विशेष आचरण से और मननशीलता से बनता है।
लेखकः- प0 महेंद्र कुमार
आर्य, आर्य समाज मंदिर सूरजपुर, ग्रेटर नोएडा, जिलाः-
गौतमबुद्धनगर के पूर्व प्रधान हैं।