मोहर्रम (ताजिया ) शहादत के पर्व पर विशेष
प्रस्तुतिः-
भूखे प्यासे हुसैन ने अंत में अकेले युद्ध किया,
लेकिन
दुश्मन मार न सका। असर की नमाज पढ़ते समय इमाम हुसैन सजदा में थे और दुश्मन ने धोखे
से कत्ल कर दिया
चौधरी
शौकत अली चेची
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मोहर्रम (ताजिया ) मनाने का मुख्य उद्देश्य
क्या है? आइए एक नजर डालते हैं, दुनिया के सभी त्यौहार बलिदान और त्याग,
सत्य
व असत्य को दर्शाते हैं। इस्लाम के जानकारों ने मोहर्रम को अलग-अलग तरह से दर्शाया है( मुहर्रम) शहादत का
एक पर्व माना जाता है। मुहर्रम चार पवित्र महीनों में से एक है। इस्लामिक कैलेंडर
से मुहर्रम पहला महीना 1 तारीख के साथ ही 1442 हिजरी सन को हो
गया, जो हिजरी कैलेंडर कहलाता है। इस बार ताजिया 30 अगस्त 2020 को मनाए जांएगे। हिजरी पैगंबर मोहम्मद
साहब के मक्का से मदीना के विस्थापन के दिन से शुरू होता है, इसकी
शुरुआत 622 ईसवी में हुई थी, यह कैलेंडर चांद की गति के हिसाब से
चलता है यानी हिजरी साल 355 दिनों का होता है, चांद
देखने पर 1 तारीख मानी जाती है, सूर्य डूबने से तारीख शुरू हो जाती है।
इस्लामिक कैलेंडर साल के 12 महीने होते हैं। साल का पहला (महीना)
मुहर्रम- सफर- रबीउल अव्वल -रबी उल आखिर - जमादी उल अव्वल- जुमादी उल आख़रि- रज्जब
-शआबान -रमजान -शव्वाल - जिल कदा- जिल हज -(मुहर्रम) महीने मैं अल्लाह के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने पाक
मक्का से पाक नगर मदीना में हिजरत किया था। ( पाक मोहर्रम माह )कर्बला में शहीदों
ने इस्लाम धर्म को नया जीवन दिया। कई लोग 10 दिन के रोजे
रखते हैं, इनमें 30 रोजे के बराबर शबाब बताया जाता है, इसे
पूरे विश्व में लोगों की अटूट आस्था का भरपूर समागम देखने को मिलता है। इस्लामिक
इतिहास के अनुसार पैगंबर मोहम्मद साहब के नाती हजरत इमाम हुसैन धर्म युद्ध में
शहीद हुए थे। कर्बला आज के वक्त इराक में है। जहां सन 60 हिजरी में यजीद
खलीफा था। जब इस्लाम में खिलाफत यानी खलीफा का राज था, खलीफा पूरी
दुनिया के मुसलमानों का प्रमुख नेता होता था। पैगंबर की वफात के बाद चार खलीफा
चुने गए थे, लगभग 50 साल के बाद
इस्लामी दुनिया में घोर
अत्याचार बढ़ गया। मक्का से दूर सीरिया के गवर्नर (यजीद) ने खुद को खलीफा घोषित कर
दिया। यजीद का कार्य इस्लाम के खिलाफ था। यजीद को इमाम हुसैन ने खलीफा मानने से
इनकार कर दिया। इमाम हुसैन मक्का शरीफ उमरा करने के लिए गए। यजीद ने अपने सैनिकों
को हुसैन का कत्ल करने के लिए भेजा। मक्का
पवित्र स्थान है,
जहां कोई भी
जुर्म करना हराम है,
खून खराबे से बचने के लिए हुसैन उमरा करके
परिवार सहित इराक
से चले आए। मुहर्रम महीने की 2
तारीख 61
हिजरी था,
पैगंबर मोहम्मद
साहब के खानदान के इकलौते चिराग इमाम हुसैन झुकने को तैयार नहीं थे,
साल
61
हिजरी में यजीद के घोर अत्याचार बढ़ने लगे। इमाम हुसैन अपने परिवार
के
साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे। रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के
रेगिस्तान में हुसैन के काफिले को रोक दिया,
वहां पानी का
एकमात्र जरिया फराच नदी थी, 6
मोहर्रम तक यजीद की फौज ने हुसैन के
काफिले पर पानी पीने के लिए रोक लगा दी। मगर इमाम हुसैन झुके नहीं,
युद्ध
का ऐलान हो गया। यजीद की 80
हजार फौज के आगे हुसैन के 72
बहादुरों ने दुश्मन फौज के होश उड़ा दिए। दसवें मोहर्रम के दिन तक हुसैन अपने
साथियों व भाइयों के शवों को दफनाते रहे। हुसैन के 6
माह के बेटे
अली असगर ने पानी के बगैर हुसैन के हाथों में दम तोड़ दिया। भूखे प्यासे हुसैन ने
अंत में अकेले युद्ध किया,
लेकिन दुश्मन मार न सका। असर की नमाज
पढ़ते समय इमाम हुसैन सजदा में थे और दुश्मन ने धोखे से कत्ल कर दिया। हजरत इमाम
हुसैन ने इस्लाम व मानवता के लिए अपनी जान
कुर्बान कर दी। 680
ईसवी में हुसैन शहीद हो गए। हुसैन का मकबरा
इराक के शहर कर्बला में उसी जगह है जहां जंग हुई थी। इराक की राजधानी बगदाद के
करीब 120
किलोमीटर दूर है हुसैन की मजार पर कर्बला में लाखों सिया मातम मनाते
हैं। इसे आशूरा भी कहा जाता है इस दिन सिया मुसलमान इमामबाड़े में जाकर मातम मनाते
हैं। ताजिया का जुलूस निकालते हैं। 12
वीं सदी से शिया व सुन्नी बादशाहो
द्वारा दिल्ली में ताजिया जुलूस निकालने की शुरुआत चली आ रही है। यह परंपरा पूरी
दुनिया में आज भी कायम है। (लखनऊ) इसका मुख्य केंद्र रहता है,
यहां
के नवाबों ने ही शहर के प्रसिद्ध इमामबाड़े का निर्माण किया था। लखनऊ को अवध के नाम
से जाना जाता था,
मीर अनीस ने कर्बला की जंग का अद्भुत वर्णन
किया है। मरसिया गाया जाता है,
हुसैन की शहादत का विस्तार से वर्णन
किया जाता है,
लोगों की आंखें नम हो जाती हैं। काले बुर्के
पहने महिलाएं छाती पीट-पीटकर रो रही होती हैं व मर्द खुद को पीट-पीटकर खून से लथपथ
हो जाते हैं। इस मातम में एक ही आवाज आती है या हुसैन हम ना हुए। मुगल दरबार में
शेख सलीम चिश्ती का विशेष सम्मान था उन्हीं की दुआओं से बादशहा अकबर के घर जहांगीर
का जन्म हुआ मसूरिया महाबत खान जिनका घर सेंट्रल दिल्ली में आईटीओ के पास था( ताजिया)
मातम मनाने का मुख्य केंद्र रहा उनके नाम से एक सड़क भी है तभी से शिया व सुन्नी
मुसलमान अलग-अलग तरह (ताजियों) का मातम मनाते हैं। मोहर्रम में मुख्य पकवान खिचड़ा
या हलीम है जो कई किस्म के अनाज मिश्रण होता है। माना जाता है कर्बला की जंग में
जब भोजन समाप्त हो गया तो शहीदों ने हलीम ही खाया था। मुहर्रम महीने में हरे
कुर्ते पहनने की परंपरा है। कमर में घंटियां बंधी होती हैं,
कई लोग नौ रातों
तक स्थानीय कब्रिस्तान में जाते हैं। दसवीं रात को युद्ध का दिन कहा जाता है,
शिया
मुसलमानों द्वारा दिल्ली में मिनी कर्बला बना रखा है जो जोरबाग में स्थित है। हर
साल दिल्ली में मुहर्रम पर जुलूस कोटला फिरोज शाह से शुरू होकर महाबत खान की हवेली
तक जाता है। महावत खान जिन्होंने अकबर,
जहांगीर शाहजहां के काल में मुगल दरबार
को अपनी सेवाएं दी अंत में शिया बन गए। पूरी दुनिया के सभी मुसलमान हजरत इमाम
हुसैन व उनके परिवार व साथियों की शहादत में मुहर्रम (शहादत व मातम )के रूप में
त्यौहार मनाते हैं।
लेखकः- चौधरी शौकत अली चेची भारतीय किसान
यूनियन ( बलराज ) के उत्तर प्रदेश
अध्यक्ष हैं।