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वेदविचार"--योग परिचय एवं सिद्धि


             
 आचार्य करणसिह     नोएडा 
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योग शब्द संस्कृत की युज् धातु से बना है। योग का अर्थ है- समाधि अर्थात् मिलाना महर्षि वेदव्यास जी ने "योगः समाधि:" योग को समाधि का वाचक माना है। महर्षि पतंजलि ने अपने धातु पाठ में "युज् समाधौ" 'युजिर योगे' जिसमें भली-भांति मन समाहित किया जा सके। उसे समाधि और आत्मा परमात्मा के मेल को योग कहते है।
     कठोपनिषद में "बुद्धिश्च न विचेष्टश्ते तमाहु:परमाम् गतिम्" जब पांचों ज्ञानेंद्रिया मन के सहित निश्छल हो जाती हैं,और बुद्धि का व्यापार भी  रुक जाता है। ऐसी स्थिति को योग कहते हैं। "मनप्रशमनोपायोयोग"  वशिष्ठ संहिता में मन को शांत करने के उपाय को योग कहते हैं। महर्षि चरक ने मन एवं इंद्रियां एवं विषयों से पृथक होकर आत्मा में स्थिर होना योग कहा है।गीता में 'समत्वं योगउच्यते'और 'योगः कर्मसु कौशलम्'अतः योग अपनाने से पहले स्वस्थ होना बड़ा जरूरी है। क्योंकि स्वास्थ के बिना परमात्मा के दर्शन दुर्लभ है। सुश्रुत में स्वस्थ रहने की भी बड़ी सुंदर परिभाषा दी है।
 समदोषःसमग्निश्च समधातुमलक्रियः।
 प्रसन्नात्मेन्द्रियमनःस्वस्थ इत्यभिधीयते।। 
तीनों दोष वात,पित्त,कफ सम हो, जट राग्नि न तीक्ष्ण हो न मन्द हो, शरीर को धारण करने वाले सप्तधातु रस,रक्त, मांस,अस्थि, मज्जा,मेद और वीर्य, ओज समानुपात में हो, मल-मूत्र की सम्यक प्रवृत्ति तथा दस इंद्रियों का स्वामी मन भी प्रसन्ध हो,ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। स्वस्थ की पहचान मोटे और पतले व्यक्ति से नहीं की जा सकती है।
         मुंडकोपनिषद में कहा है (नाय आत्मा बल हीनेन् लभ्यः) दुर्बल एवं रोगी व्यक्ति को परमात्मा के दर्शन नहीं होते हैं। समाधि प्राप्त करने के एक ही रास्ता हैअष्टांग योग  यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि ।
        संसार रूपी भवसागर से पार होने के लिए शरीर रूपी नौका को सुदृढ़ तथा छिद्र रहित बनाकर ब्रह्म की प्राप्ति की जा सकती है।मनुष्य का शरीर जल में स्थित कच्चे घड़े के समान है। योगाग्नि में तपाकर इसे पक्का कर लेना चाहिए। योग का लंबा रास्ता है, परंतु सरल है। कल्याण का एक ही मार्ग है,प्रेय मार्ग प्रेय मार्ग में सडके, दुकाने सभी सुविधाएं हैं। श्रेय मार्ग में कटीली,झाड़ी,पर्वत आदि दुर्गम रास्ते हैं।किसी ने बहुत सुंदर कहा है-
 यह खिले हैं चमन, सब उजड़ जाएंगे। इक सफर है,यहां हम सब बिछड़ जाएंगे।।  
      आत्मनः प्रतिकूलानि न समाचरेत्। अर्थात् जो व्यवहार हमें अपने लिए अच्छा नहीं लगता है ऐसा व्यवहार हमें दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए।हमारा आचरण पवित्र होना चाहिए और व्यवहार भी मधुर होना चाहिए।
 नहिसत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकम् परम ।अर्थात्  सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। इसीलिए हमें सदैव सत्याचरण  ही करना चाहिए।
       इस इस प्रकार अष्टांग योग को अभ्यास में लाकर सतत् पुरुषार्थ करके दृढ़ता से अपने आचरण को पवित्र बना लेना और योग के सात अंगों पर विजय पाने के पश्चात् दृढ़ता से साधना करने के पश्चात् समाधि का स्थान प्राप्त होता है।अनेक व्यक्ति लोगों को भ्रम में डालने के लिएऔर अपना आर्कषण व प्रभाव बढाने लिए कहते हैं कि मुझे समाधि अवस्था मिल गई है। मैं समाधि लगा लेता हूं, परंतु जिसने पहले सात अंगों पर ठीक से कार्य नहीं किया। वह कभी समाधि अवस्था में नहीं जा सकता। समाधि में आत्मा सांसारिक बंधनों से ऊपर उठकर केवल परमात्मा में विचरण करता है। समाधि अवस्था में पहुंचा साधक जटिल से जटिल प्रश्नों को सरल बना लेता है, और ठीक से आनंद अवस्था में रहता है।